नाट्य लेखन और रंगमंच : रेडियो और दुस्संचार नाटक के विशेष संदर्भ में | Natya Lekhan Aur Rangmanch : Radio Aur Dussanchar Natak Ke Vishesh Sandarbh Mein

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Natya Lekhan Aur Rangmanch : Radio Aur Dussanchar Natak Ke Vishesh Sandarbh Mein by जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव - Jagdish Prasad Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विधा मानकर जिन्होंने अपनी लेखनी चलाई है , इस दिशा में उन नाटककारों का अधिक योगदान है जो आदर्शन्मुख यथार्थ के अधिक निकट रहे हैं । नाटकों में नैतिकता-स्वर मुखर है और विकृत तथा विरूपता की अपेक्षा सदाचार तथा सुरूचि - सम्पन्नता को उजागर करने का यत्न किया जाता है। लोक रूचि का परिष्कार करने की ओर नाटककारों का ध्यान केन्द्रित रहा है । वास्तव में नाट्य साहित्य जीवन का दर्पण ही नहीं , दीपक? भी है | मानव जीवन को ही उसका प्रमाण परिधि मानकर साहित्यकार उसमें सर्जनात्मक शक्ति का संचार करता है । संस्कृत साहित्य में नाटक की गणना काव्य विधा के अर्न्तगत की गयी है , किन्तु हमारे प्रमुख नाटककारों ने उसे नृत्य, संगीत, संवाद ओर अभिनय से युक्त ठहराया है । हिन्दी नाटकों का प्रारम्भिक समय हिन्दी नाट्य रचना की दृष्टि से उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध महत्वपूर्ण है । इसी समय अंग्रेजी साहिल्‍य से भी सम्पर्क हुआ साथ ही भारतीय पुनरुत्थान की भावना से प्रेरित होने के फलस्वरूप हिन्दी के साहित्यकारों ने नाट्य रचना की ओर ध्यान दिया, जिसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र [सन्‌ 1850 - 1885 ई0 | अग्रगण्य रहे; मौलिक ओर साहित्यिक नाट्य परम्परा मेँ हिन्दी के प्रथम नाटककार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ही हैँ ओर उनका वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति 1973 ६0 हिन्दी का प्रथम मौलिक नाटक कहा जा सकता है । कुछ आलोचकों के अनेकं त्रुटियों ' -के बावजूद भी रीवा नरेश विश्वनाथ सिंह [1789-1854 ई | के “आनन्दरघुनन्दन को हिन्दी कां प्रधान मौलिक नाटक स्वीकार किया है । ब्रजभाषा में ही भारतेन्दु जी के पिता गोपालचन्द्र ” का नहुष | 1841 ई0 | मिलता है; , पर“खड़ी बोली' में युग बोध के साथ मंचीय तत्वों के समावेश




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