मुक्तिबोध के काव्य में जन-चेतना | Muktibodh Ke Kavya Mein Jan-chetana

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Muktibodh Ke Kavya Mein Jan-chetana by विनोद कुमार त्रिपाठी - Vinod Kumar Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| अपने मुहावरे ओर अंदाज भी बदल दिये है। हो सकता है कि ये लोग आज यूनेस्को की अर्न्तराष्ट्रीय शब्दावली में बात करते हों, और यह भी हो सकता है कि नागपुर यूनीवर्सिटी से तुलसीदास के दर्शन पर उन्होने अपनी पुस्तक प्रकाशित करवायी हो। पुराणपन्थी से हमारा तात्पर्य उन सभी सज्जनो से है जिनका सौजन्य सामान्य जन की बौद्धिक-सामाजिक-राजनैतिक मुक्ति के आडे आना है। “सामान्य-जन” या “जनता” शब्द के प्रयोग से घबराने की जरूरत नहीं (यद्यपि तरह-तरह के अवसरवादियों द्वारा इस शब्द का खूब दुरूपयोग किया गया है)। मध्य वर्ग के गरीब बुद्धिजीवी लोग भी जनता में शामिल हैं, बशर्ते कि वे समाज की थेली-शाही के भोंपू न बने। हो सकता है कि गरीब बुद्धिजीवी और लेखक भटका हुआ हो किन्तु उसकी स्वयं की स्थिति कोई उससे छीन नहीं लेता। और आम तौर पर उसकी स्थिति ही ऐसी हैं कि वह जनता में है। चण्डीदास का वह पद - शुनह मानुष भाई शबार ऊपर मानुष शत्तो ताहार ऊपरे नाई। - जिस मनुष्य सत्य की घोषणा करता है उसका मूल अधिष्ठान जनता में है। इस जनता को आंखों से ओझल करके देशभक्ति नहीं हो सकती |”१ ৭- मु० रच०, भाग-५-पृ०-६४




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