प्रगतिवादी आलोचनात्मक प्रतिमानों का विकासात्मक अध्ययन | Pragativadi Aalochnatmak Pratimano Ka Vikasatmak Adhyyan

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Pragativadi Aalochnatmak Pratimano Ka Vikasatmak Adhyyan by निर्मला अग्रवाल - Nirmala Agrwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उद्भव हिन्दुस्तान की अपनी परिस्थितियो, जनआन्दोलनो, व्रिटिश हुकूमत की औपनिवेशिक शोषण, समाजवादी विचार धारा के तेजी से प्रसार, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के हनन की प्रतिक्रिया आदि कारणो से हुआ। 1929 के वाद भारतीय समाज मे जनता की आत्मगत चेतना मे क्रान्तिकारी परिवर्तन होने लगे थे। भारतेन्द्‌ कालीन यथार्थवादी रूद्यान के विकास तथा देश की परिस्थितियो मे प्रति सवेदनशील रयनाकारो की इमानदार प्रतिक्रियाओ से জী यथार्थवादी साहित्य जन्म ले रहा था।| प्रगतिवादी उसी का सुसगत ऐतिहासिक विकास था।| परन्तु विदेशो मे बसे भारतीयो ने प्रगतिवाद रूपी आग कौ प्रज्वलित करने मे चिनगारी का कार्य जरूर किया। जिसे इन्कार करना सत्य से मुख मोडने जैसा ही होगा | इस प्रकार प्रगतिवाद का उदय छायावादोत्तर हिन्दी साहित्य मे माक्सवादी चितन से ओतप्रोत साहित्यिक आन्दोलन के रूप मे हुआ। प्रगतिवाद वस्तुत साहित्य या काव्य चेतना की वस्तुवाद का कठोर विषय था, जो यथार्थ धरातल पर खीच ले जाने का प्रयास था। शोषित पीडित आम आदमी प्रगतिवादी रचना के केन्द्र मे है। सामन्तवादी या बुर्जुवा मूल्यों से उसका स्वभाविक विरोध है, और वह वर्गहीन शोषणमुक्त समाज का द्रष्टा हे। वस्तुत लेखक था रचनाकार अपने समय की नब्ज को पकडे रहता है। समाज कं परिवर्तन या उथल पुथल के सूक्ष्म से सूक्ष्म सकंतो कौ अपनी रडार दृष्टि से पकड लेता है यही कारण है कि भारतीय समाज मे परिवर्तन को प्रेमचन्द जी ने महसूस किया, साथ ही जब कविता के क्षेत्र मे छायावाद का विकास लगभग रूक सा गया। एसे मे यूरोप से आये भारतीयो ने प्रगति की आवाज लगाई और छायावादी कवियो (पत ओर निराला) ने महसूस किया कि यह तो उनके अन्तरआत्मा की ही आवाज है । फलत सुमित्रानन्दन पन्त ने छायावाद का युगान्त घोषित कर प्रगतिवाद कों युगवाणी' के रूप मे तुरन्त अपना लिया, निराला व महादेवी वर्मा ने भी एक सीमा तक इसे स्वीकार कर लिया | (7)




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