प्रसाद के नाटक रचना और प्रक्रिया | Prasad Ke Natak Rachna Aur Prakriya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
251
श्रेणी :
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No Information available about जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव - Jagdish Prasad Shrivastav
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नाट्य-वस्तु श्रौर विन्यास-शिल्प
प्रसाद स्वच्छन्दतावादी नाव्यकार है भौर श्रापाततः यह एक विसगति ही है कि
उन्होने कामना श्रौर एक घट को छोडकर सभी नाटकं की कथावस्तु प्राचीन इतिहास
से ली ह । यो, पश्चिम के स्वच्छन्दतावादी कवयो मे से भ्रनेक ने श्रपने नाव्यवृत्त इतिहास
से चुने है भौर रूस मे तो स्वच्छन्दतावाद का उदय ही एतिहासिक नाटको के क्षितिज पर
हुआ है । वहा एेतिह्य वस्तुविषयवाले नाटको को जनता मे साहस, परक्रम एवं त्याग की
भावना जगाने के लिए सर्वोत्तम माध्यम माना गया है । वस्तुत ॒स्वच्छन्दतावादी मनो-
दृष्टि जिस स्तर की रोमानी व कंल्पनाश्रयी भावर्शात्मकता के लिए श्रपने को प्रतिबद्ध
अ्रनुभव करती रही है, उसकी श्रवतारणा के लिए श्रतीत की गहराइयों में उतरना उसकी
अनिवार्य नियति बन जाती है । हेगेल ने कुछ ऐसा ही श्रनुभव करते हृए इतिहास की
गत्यात्मक शक्ति को युगचेतना और स्वातत्य-भाव की अभिव्यक्ति कहा था । उसका यह
कथन कि इतिहास में नाटक का प्रमुख प्रयोजन निहित होता है--एक विस्मयकारी किन्तु
श्रकाट्य समाजशास्त्रीय सत्य का उद्घाटन करता है। यह आवश्यक नही कि इतिहासाश्रयी
नाटककार समकालीन जीवन के प्रति उपेक्षाशील ही हो। वास्तविकता तो थह है कि
रचनाकार से जितनी श्रधिक सर्जनात्मक प्रतिभा होती है, उतना ही वह अपनी सम-
कालीनता के प्रति जागरुक रहता है श्रौर श्रपनी इस जागरुकता को अ्धिकाधिक प्रभाव-
शाली भ्रभिन्यक्ति देने के लिए ही वहु बहुधा इतिहास की शव-साधना करता ह । सम.
सार्मायक वस्तुविषय भी वह् भपना सकता ह, किन्तु उसमे प्रासभिकं भौर साधारण रह्
जाने का खतरा उसे भ्रक्सर भुडने के लिए विवश करदेतादह। यीटूस का यह् कहना
गलत नही कि भ्राधुनिक जीवन कै साधारण पहलू प्रस्तुत करनेवाले नाठक भावोन्नयन मे
भ्रशक्त प्रमाणित होते है । श्रत वर्तमान के प्रति जागरुक सर्जक यदि उसे श्रतीत के
आालोक में उभारता ठीक समभते है, तो इसमें विस्मय की कोई बात नहीं । वास्तविक
ऐतिहासिक चिन्तन वर्तमान से ही भ्रधिक सम्बद्य होता है भौर भतीत के भ्रध्ययन से
वर्तमान को भ्रधिक सुभनू् के साथ समाजा सकता हं ।” प्रसाद की दृष्टि ऐसी ही
थी । भरव यदि परस्परावादियो को सर्जन का यह यथार्थ श्रसुविधाजनक लगे, तो चारा ही
क्या है ।
यह सही है कि प्रसाद ने अपने ढंग से यथार्थवाद का प्रत्याख्यान किया है, किन्तु
उन्हें श्रादर्शवाद का हिमायती भी नही कहा जा सकता । इस तथ्य के बावजूद कि उनकी
वृत्त-सरचना में स्वच्छन्दतावादी कल्पना का महत्वपूणं योगदान रहा है, उन्हे समल्वयशील
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