बृहत्त्रयी में दार्शनिक तत्त्व एक समीक्षात्मक अध्ययन | Brahattriyee Me Darshnik Tattv Ek Samichhatmak Adhayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भामह ऑर दण्डी अलइकार को काव्य की आत्मा मानते हैं। লাম ने कहा है ¶क सुन्दर होने पर भी आभरण रहत कामनी-मुछ शोधित नहीं होता है। दण्डी न अलङ्कार को शेभाधायक ध्म कहा है। रीति सम्प्रदाय के आषार्य वामन ने रीति को काव्य की आत्मा स्वीकार या है अर्थात्‌ वन शैली का ही काव्य में प्राधान्य होता है। वक्रोक्त सम्प्रदाय के आपार्य कुन्तक का मन्तव्य हे क चमत्कार पैदा कर देने वाली वाक्य -भौगमा ही वक्रो বত है। रस सम्प्रदाय का वव्यार है ॥के रस ही काव्य की आत्मा है। भरतमानि ने इस सम्प्रदाय की स्पक्का की थी और इस तथ्य को 'कवनाथ ने अपनी कात*सावहत्य-दर्पण में स्पष्ट शिकया है। ध्वीन सम्प्रदाय के संस्थापक आनन्दर्दान ने “व्याहुजत अई अर्थात्‌ ध्वीन को काव्य का षीवन माना है । दूषय और श्रवृय के भेद से काव्य दो प्रकार का होता है। झसमें प्रथम दुश्य काव्य का नामान्तर रूपक भी है।यह नाटका दे भेद से दस प्रकार का होता है। तथा द्वितीय श्रवृथका व्य-पद्चा त्मक, गधा त्मक ओर उभया त्मक-अरथां त्‌ गध्पवा त्मक भेद से तीन प्रकार का होता है। इसमें भी प्रथम पद्यात्मक काव्य के 818 महाकाव्य {2} छण्ड कतव्य [उ कुलक [५ कलापक ॥5) सन्दाननितक 161 युग्मक ओर 17 मक्त सातभेद हैं। द्वितीय गद्यात्मक काध्य के -कथा अर आख्यायका ये दो भेन्द ই। नैक #कवनाथ मत से मुक्तक, व॒त्तगीनध, उत्कीहकाप्राय और चृर्णक ये वार भेद होते है। तृतीय उभयात्मक काव्यवम्पूकाव्य




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