धर्मदर्शन के स्वामी करपात्री जी के योगदानों का आलोचनात्मक अध्ययन | Dharm Darshan Men Swami karapatri ji ke Yogadanon ka Alochanatmak Adhyayan

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Dharm Darshan Men Swami karapatri ji ke Yogadanon ka Alochanatmak Adhyayan by कु॰ सुचेता - K. Sucheta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विश्वेश्वराश्रम महाराज भी विद्यमान थे. जो, षड़दर्शत्ञाचाय होने के अतिरिक्‍त प्रकाण्ड विद्वान थे। हरनारायण ने; इन्ही विद्वान से, व्याकरण तथा दर्शतशास्त्र का अध्ययन अनेक वर्षों, तक किया। कुछ दिनों के पश्चात्‌ स्वामी अच्युत्मुनि के अनुरोध पर जब स्वामी विश्वेश्वराश्रम जी नरवर को, त्याग कर वहां से लगभग 8 * मील की दुरी पर स्थित भृगक्षेत्र चले. गये, तब हरनारायण को भी उनका अनुगमन करना पड़ा। वहां भी इन्होंने, अपने अध्ययन का क्रम चालू रखा और कुछ ही वर्षों, में अपने; स्वाध्याय तथा गुरू की कृपा से प्रकाण्ड पाण्डित्य प्राप्त कर लिया। तप, सन्‍यास्त तथा यज्ञ :- अध्ययन के पश्चात्‌ हरनारायण ने. तपस्या करने का निश्चय किया। अब इन्होति. अपना नाम 'हरिहरचैतन्य' धारण, कर लिया और ये उत्तराखण्ड में स्थित हिमालय की तलहंटियों में चले. गये। वहां भूख और प्यास की यातना सहते हुए अपने शरीर की ममता का परित्याग कर ये साधना में निरत हो गये। इस घनघोर तपस्या के बाद उन्हें आत्मज्ञान की प्रप्ति हई तथा अपनी साधना की समाप्ति पर परमहस के रूप में जब ये आश्रम में लौठे तो इनके मुखमण्डल पर अलौकिक आभा दिखाई पड़ने लगी थी। साथियो ने इनका स्वागत करते हए बड़ी प्रसन्नता प्रगट की। हरिहर चैतन्य ने. सर्वप्रथम अपने, गुरू के चरणो की वन्दना की ओर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। उस समय हरिहर चैतन्य केवल एक कौपीन धारण करते थे तथा सदाचारी ब्राहमणं के घर पर भिक्षा के लि जाते थे। हाथ पर्‌ भोजन करने के कारण ही इनका नाम करपात्री पड ग्या था। हिमालय की तलहटी से निकलने, के उपरान्त हरिद्वार के कुम्भ में इनका पदापण हुआ। सन्‌ 1932 मँ हरिद्वार के कुम्भ म महामना मालवीय जी क भी जयदयाल गोयनका को. किलाघाट पर महाराजश्री के दर्शृतार्थ लेः गये वहां मालवीय जीने; प्रणव भत्र युक्त दीक्षा देने की बात की ओर इस प्रणव की दीक्षा को लेकर मालवीय जी एव करपात्री जी में शास्त्रार्थ, हुआ। मालवीय जी ने उन्हें धरती पर आकर धर्म प्रचार के लिए प्रेरित किया, यहां से हरिहर चैतन्य पुनः आश्रम की तरफ आये जहां इन्होंने स्वामी ब्रहमानन्द सरस्वती जी महाराज से सन्‍्यास की दीक्षा मात्र 25 वर्ष की अवस्था में तली तथा सन्यास ग्रहण किया ओर धर्मप्रचार के लिए निकल पड़े। अब इनका नाम हरिहर चैतन्य से स्वामी हरि्रानंद सरस्वती हौ गया। शास्त्रों. में लिखा है कि देश या समाज तरै जितना भी आन्तर ओर वाहय पतन है अर्थात्‌ फूट,




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