प्रेमचंद का कथा साहित्य और उन पर लिखी आलोचनाएँ | Prem Chand Ka Katha Sahitya Aur Un Par Likhi Aalochanaen

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Prem Chand Ka Katha Sahitya Aur Un Par Likhi Aalochanaen  by अनुसूइया श्रीवास्तव - Anusuiya Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अलौकिक करनामे पाठकों को चकित करते हैं। इस प्रकार के उपन्यासो का उद्देश्य पात्रों की अन्तर्वति का निरूपण, सामाजिक यथार्थ का अंकन और रस-संचार करना नहीं होता। यहाँ पात्र अपना वैशिष्ट्य खोकर लेखक द्वारा कल्पित कार्य करने के लिए सरकस के जीवों की तरह रंगमंच पर आते रहते हैं और कभी पानी पर दौड़ लगाकर, ऊँची-से-ऊँची जगहों से कूदकर, भूगर्भों में छिपकर, वहॉ से रहस्यमय ढंग से निकलकर या इसी तरह अन्य प्रकार के मायावी कार्य कर एक ऐसी दुनिया में पाठकों को ले जाते हैं जो वास्तविक दुनिया से एकदम भिन्‍न होती है। चन्द्रकान्ता की कथा मूलतः प्रेमकथा है। विजयगढ़ की राजकुमारी चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह और क्रूर सिंह दोनों चाहते हैं। चन्द्रकान्ता वीरेन्द्र सिंह को चाहती है। प्रेम का संघर्ष ही अनेक प्रकार की वैचित्र्यपूर्ण घटनाओं की सृष्टि करता है। यह प्रेमकथा है परन्तु प्रेम की मार्मिक अनुभूतियों का चित्रण नहीं है। चन्द्रकान्ता सन्तति (चौबीस भाग, 1896) 'चन्द्रकांता' से भिन्‍न नहीं है। तिलस्म और ऐयारी पर आधारित ये प्रेमकथाएँ फारसी के 'तिलस्म होशरूवा' और “হাজ্লাল अमीर हम्जा नामक लोकप्रिय रचनाओं से कष्ठ प्रभावित जान. पड़ती हैं। खत्रीजी ने नरेन्द्र मोहिनी (1893), “वीरेन्द्र वीर(1895), “कुसुम कमारी'(1899), काजल की कोठरी' (1902), अनूठी बेगम (1905), “गुप्त गोदान((1906), 'भूतनाथ-प्रथम छह भाग उपन्यास भी लिखे हैं। इन्हीं की परम्परा मे हरेकृष्ण जौहर-कृत कुसुम लता “मयंक मोहिनी या माया महल(1901), कमल कूमारी(1902). “निराला नकाबपोश(1902). भयानक खून (1903). किशोरी लाल गोस्वामी-कृत तिलस्मी शीशमहल*(1905). रामलाल वर्मा-कृत “पुतली महल(1908). उपन्यास आते हें । जासूसी उपन्यासकारों में श्री गोपालराम गहमरी का नाम अग्रगण्य है। इन्होंने 'जासूस नाम का एक अखबार निकाला, जिसमें जासूसी उपन्यास और कहानियाँ प्रकाशित होती रहीं। 'अद्भत लाश' बेकसूर की फॉँसी', सरकती लाश', खूनी कौन', 'बेगुनाह का खून', जासूस की भूल^ अद्भुत खून खूनी का भेद” 'गुप्तभेद” इनके उपन्यास हैं । उपदेशप्रधान सामाजिक उपन्यास - यह युग सांस्कृतिक पुनरूत्थान का था। राष्ट्रीय और सामाजिक जाग्रति की चेतना धीरे-धीरे विकसित होने लगी थी। उस काल के चिन्तकों और कलाकारों को सामाजिक-थार्मिक रूढ़ियाँ और पाश्चात्य सभ्यता की না




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