हरी बांसुरी सुनहरी टेर | Hari Bansuree Sunahree Ter

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Hari Bansuree Sunahree Ter by श्री सुमित्रानन्दन पंत - Sumitranandan Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रेण॒ की साड़ी पहन, चल तृहिन का मुकुट रख, तुम खोलती हो मुकुल को ! मेघ-से उन्माद ! तुम स्वर्गीय हो, कुमुद कर सें जन्म पा, तुम मधुप के गीत पीकर मत्त रहते हो. सदा, मौन, चिर शअ्रनिमेष, निर्जेन पुष्प-से ! प्राह :-रससुखे आँसुग्नों की कल्पना , कोहरे सी मुक्त नभ में भूम कर, दग्ध उर का भार हर, तूम जलद सी बरसती हो स्वच्छ हलकी दांति में ! अ्रश्नु,--हैं श्रनमोल मोती दृष्टि के ! नयन के नादान शिशु ! इस विश्व में श्राँखस हैं सौन्दयं जितना. देखतीं प्रतनू : तुम उससे मनोरम हो कहीं ! ग्रश्न ! दिल की गूढ़ कविता के सरल श्री' सलोने भाव! माला की तरह विकल पल में पलक जपते हैं तुम्हें ; तुम हृदय के घाव धोते हो. सदा ! वेदने ! तुम विश्व की कृश दृष्टि हो , तुम महा संगीत, नीरव हास हो, है तुम्हारा हृदय माखन का बना, भाँसुध्रों का खेल भाता है. तुम्हें ! हरी बाँसुरी सुनहरी टेर ६७




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