हरी बांसुरी सुनहरी टेर | Hari Bansuree Sunahree Ter

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : हरी बांसुरी सुनहरी टेर - Hari Bansuree Sunahree Ter

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्री सुमित्रानंदन पन्त - Sri Sumitranandan Pant

Add Infomation AboutSri Sumitranandan Pant

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
रेण॒ की साड़ी पहन, चल तृहिन का मुकुट रख, तुम खोलती हो मुकुल को ! मेघ-से उन्माद ! तुम स्वर्गीय हो, कुमुद कर सें जन्म पा, तुम मधुप के गीत पीकर मत्त रहते हो. सदा, मौन, चिर शअ्रनिमेष, निर्जेन पुष्प-से ! प्राह :-रससुखे आँसुग्नों की कल्पना , कोहरे सी मुक्त नभ में भूम कर, दग्ध उर का भार हर, तूम जलद सी बरसती हो स्वच्छ हलकी दांति में ! अ्रश्नु,--हैं श्रनमोल मोती दृष्टि के ! नयन के नादान शिशु ! इस विश्व में श्राँखस हैं सौन्दयं जितना. देखतीं प्रतनू : तुम उससे मनोरम हो कहीं ! ग्रश्न ! दिल की गूढ़ कविता के सरल श्री' सलोने भाव! माला की तरह विकल पल में पलक जपते हैं तुम्हें ; तुम हृदय के घाव धोते हो. सदा ! वेदने ! तुम विश्व की कृश दृष्टि हो , तुम महा संगीत, नीरव हास हो, है तुम्हारा हृदय माखन का बना, भाँसुध्रों का खेल भाता है. तुम्हें ! हरी बाँसुरी सुनहरी टेर ६७




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now