काय चिकित्सा | Kaya-chikitsa
श्रेणी : आयुर्वेद / Ayurveda
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
118.56 MB
कुल पष्ठ :
986
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
गंगा सहाय पाण्डेय जी का पुरानी काशी, वाराणसी से सम्बंध रहा | वे एक आयुर्वेदाचार्य / आयुर्वेद व्यवसायी रहे तथा इन्होने आयुर्वेद तथा आयुर्वेद से सबंधित कई अहम एवं संजीदा पुस्तकें लिखीं |
वर्तमान में इनके वंशज त्रिवेणी नगर, कैंट, कानपुर में निवास करते हैं |
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रोगीपरी&्षा श्र
प्रमाण, आकृति; सक्षता, स्निम्धता, छाया; अभा, कान्ति; तेज; झासन एवं गति को
चिशेषताएँ आदि विषयों का ज्ञान दर्शन से ही होता है ।
रसज्ञान- ऊपर रसना के द्वारा रसज्ञान का निषेध वताया गया है। रोगी के
सुख का स्वाद उससे पूंछकर जानना चाहिए शरीर में चींटी या मक्खियों के अधिक
आकृष्ट होने से मघुरता का झनुमान और इनके अपसपंण सें कट; तिकत आदि रसों का
अनुमान किया जाता है । चमनादि में जीव रक्त होने पर काक- धान आदि आसमिषभक्ती
जीव उसे खा लेते हैं, उनके न खाने पर अशुद्ध रक्त या रक्तपित्त का निणय किया जाता
है । क्षारीयता, अम्लता एवं मघुरता का असंदिग्ध ज्ञान विशिष्ट रासायनिक परीक्षाओं से
भी किया जाता हैं ।
गन्घज्ञान या घाण के द्वारा फ्रीदय विषय--रुगण-शरीर की सभी प्रकार की
गंधों की परीक्षा-स्वेद, मूत्र; मल, कफ; रक्त एवं वमन में निकले द्रव्य; त्रण के स्राव आदि
की परीक्षा घ्रायोन्द्रिय की सहायता से की जाती है । प्रमेहपिडिकोपदुत मधुमेह में मधुर
गंघि श्वास; मृत्रविषमयता में मूत्रगंधि श्वास ; फुप्फुसकोथ में पूतिगंधि आदि विशिष्ट
गन्धों का ज्ञान व्याधिनिणय में पर्याप्त सहायक होता है ।
आधुनिक काल में अनेक यन्त्रोपयन्त्र-उपकरणादिक आविष्कृत हो चुके हैं, जो
सामान्यतया इन्दियों से प्रत्यक्ष न हो सकने योग्य विषयों को भी प्रत्यक्षवत परिलक्षित
कराते हैं । इनका यथावश्यक श्रयोग इन्द्रियों की सहायता के लिए किया जा. सकता है।
रोगीपरीक्षा में चिकित्सक को ऐन्द्रियक परीक्षण और बुद्धि के द्वारा ही काम लेने का
अधिक अभ्यास रखना चाहिए; उपकरणों की सहायता अत्यन्त झावश्यक होने पर ही
लेना चाहिए--झन्यथा इन्दियों की सूच्मवेदनशक्ति कुण्ठित हो जाती है; व्यक्ति पराश्रयो
हो जाता है ।
अनुसान--प्रत्यक्ष हो सकने योग्य विषय अल्प तथा अप्रत्यक्ष किन्तु अनुमान
के द्वारा ज्ञेय विषय असंख्य श्र असीम होते हैं । यद्यपि अत्यक्ष की तुलना में अनुमान
प्रमाण बहुत महत्व का नहीं होता, किन्तु उसके अभाव में श्नुमाव का ही सहारा लेना
पड़ता है । गूढ़ ठिंग व्याधि की परीक्षा उपशय या अजुपशय के द्वारा की जाती है, यह
अनुमान ही हैं ! आतुर की पाचकामि का श्यनुमान आहार के जारण करने की शक्ति पर;
बल का अनुमान व्यायामसामथ्य पर और श्रोत्रादि इन्दियों की कार्यक्षमता का अनुमान
विषयपग्रहण शक्ति से किया जाता है । प्रातःकाल रोग बढ़ने पर कफ का; सध्याह में प्रकोप
होने पर पित्त का तथा सार्यंकाल बढ़ने पर वायु के दोष का अनुमान किया जाता
है। पूवरूपावस्था से रोग का श्ाभास तथा उपद्रव एवं झरिष्ट उपस्थित हो नें
पर असाध्यता कां ज्ञान अनुमान के द्वारा ही होता हे । अनुमान के मुख्यतया
२ आधार होते हैं--१ तरक॑२ युक्ति । अनुमानश्ञेय विषयों का श्रागे यथास्थल उल्लेख
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