काय चिकित्सा | Kay Chikitsa

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Book Image : काय  चिकित्सा  - Kay Chikitsa

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गंगा सहाय पाण्डेय जी का पुरानी काशी, वाराणसी से सम्बंध रहा | वे एक आयुर्वेदाचार्य / आयुर्वेद व्यवसायी रहे तथा इन्होने आयुर्वेद तथा आयुर्वेद से सबंधित कई अहम एवं संजीदा पुस्तकें लिखीं |
वर्तमान में इनके वंशज त्रिवेणी नगर, कैंट, कानपुर में निवास करते हैं |

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रोगीपरीक्षा पड ममाण, झाऊृति; रुक्षता; स्निस्धता; छाया, अभा; कान्ति; तेज आसन एवं गति की चिशेषताएं झादि विपयों का ज्ञान दशन से ही होता हैं । रसज्ञान-'ऊपर रसना के द्वारा रसज्ञान का निषेध वताया गया है। रोगी के सुख का स्वाद उससे पूंछकर जानना चाहिए । शरीर में चीटी था सक्चियें। के अधिक होने से सघुरता का अनुमान और इनके अपसपंण से कट; तिक्त आदि रसों का किया जाता है । चमनादि सें जीव रक्त होने पर काक-श्वान आदि आसिषभक्षी जीव उसे खा लेते हैं, उनके न खाने पर अशुद्ध रक्त था रक्तपित्त का निर्णय किया जाता है । क्षारीयता, अम्लता एवं सधुरता का श्संदिग्ध ज्ञान विशिष्ट रासायनिक परीक्षाओं से भी किया जाता है 1 गन्धल्ान या प्राण के द्वारा परीदय चिषय--सुगण-शरीर की सभी श्रकार की गंध की परीक्षा मूत्र; सल, कफ, रक्त एवं चमन में निकले द्रव्य; के खाव आदि की परीक्षा घ्रायेन्द्रिय को सहायता से की जाती है । अ्रमेदपिंडिकोपट्रत मधुमेह में मधुर- गंघि श्वास; मूत्विपमयता में मूत्रगंधि श्वास ; फुप्फुसकोथ में पूतिगंधि आदि विशिष्ट गर्न्ों का ज्ञान व्याघिनिणय में पर्याप्त सहायक होता है । आधुनिक काल सें अनेक यन्त्रोपयन्त्र-उपकरणादिक श्राविष्कृत हो चुके हैं; जो सामान्यतया इन्द्रियों से प्रत्यक्ष न हो सकने योग्य विषयों को भी अत्यक्षवत परिलक्षित कराते हैं । इनका यथावश्यक प्रयोग इन्द्रियों की सहायता के लिए किया जा. सकता है। रोगीपरीक्षा में चिकित्सक को ऐन्द्रियक परीक्षण और बुद्धि के द्वास ही काम लेने का अधिक शभ्यास रखना चाहिए; उपकरणों की सहायता अत्यन्त आवश्यक होने पर ही लेना चाहिए--झअन्यथा इन्दियों की सूचमवेदनशक्ति कुण्ठित हो जाती है; व्यक्ति पराश्रयी हो जाता है । हो सकनें योग्य विषय शल्प तथा शम्रत्यक्ष किन्ठु शनुमान के द्वारा विंषय झसंख्य और असीस होते हैं । यययपि अत्यक्ष की तुलना में अजुमान- प्रमाण चहुत महत्व का नहीं होता; किन्तु उसके अभाव में अनुमान का ही सहारा लेना पढ़ता है । गूढ़ ठिंग व्याधि की परीक्षा उपशय या झजुपशय के द्वारा की जाती है; यह उ्लुसान ही है । ्ातुर की पाचकामि का श्यनुमान आहार के जारण करने की शक्ति पर वल का “नुमान व्यायामसामध्य पर और श्रोज्नादि इन्द्ियों की कार्यक्षमता का. अजुमान शक्ति से किया जाता है । रोग बढ़ने पर कफ का; मध्याह में अकोप होने पर पित्त का तथा सायंक्राल बढ़ने पर वायु के दोष का अजुसान किया. जाता है। पूर्वरूपावस्था से रोग का श्ाभास तथा उपद्रव एवं अरिष्ट उपस्थित होने पर झअसाध्यता का ज्ञान अनुमान के द्वारा ही होता है। अनुमान के मुख्यतया २ दाघार होते हैं--१ तर्क र युक्ति । श्रनुमानज्ञेय विषयों का श्ागे यथास्थल उल्लेख किया जायगा +




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