सुखसागर का मंगलाचरण | Sukhsagar ka Manglacharan

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Sukhsagar ka Manglacharan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र्556550555555255556स56555866 2 एक ब्राह्मण का इतिहास । 3 हमको बतलादे नहीं तो तुझको मारडादंगा उसने मारने के उरसे कहा कल बतला हि दूंगी उस संमय यह बात कहकर जाहमणीने बेटाकें हाथ से अपना प्राण बचाया पर ४ उसके घरमें कुछ द्रव्य नहीं था जा बेटे को बतलाती इसाछिये मारपीट के डर से 2 ० वह रात को कु थे मं गिरफर मरगर जब गोक्णेन घुन्धकारी का यह दाल देखा तब 2 0 अपना रहना वहां उचित न जानकर वह तीर्थयात्रा करने बाहर चलागया व गाकणे | ८2 ऐसा महात्मा व ज्ञानी हुआ कि दुःख व सुख शत्रु व मित्र को एकसा समझकर दिन प्र पर रायि सिवाय भजन व रमरण परमेश्वर के कुछ दूसरा उद्यम नहीं रखता था व गो पर 2 कर्ण के जाने के उपरान्त धुन्थकारी अकेला घर में रहकर चोरी व ठगी करके वेश्या धन देने लगा एक दिन बह कहीं से बहुतसा रुपया व गहना चुरालाया सो अपनी वेश्या को देकर उसके साथ सोया जब रात को घुन्धकारी नींद में अचेत हुआ तब उस वेश्या के घरवालोंने आपस में सम्मत किया कि यह सदा चोरी व ठगी करके दूसरे का घन छाकर हमको देता है कहीं पकड़ा जायगा तो उसके साथ ् हि भी दण्ड पावेंगे और ऐसा उद्यम रखने से यह अवश्य मारा जशयगा इस श्र नि लिये उत्तम है कि हमठोग इसको मारडालें उन्होंने आपस में यह विचार कंरके को फांसी लगाकर अपने घरमें लटका दिया जब फांसी उगाने से उसका तु ब्राण नहीं निकला तब जलती २ लकड़ियों से उसका मुंह जढाकर मारडाला व शि घरके भीतर गड़हा सोदकर उसे गाड़ दिया जब उस वेश्या के अड़ासी पट पूंजा हि घुन्धकारा जो तुम्द्दरे घर पर आता था इन दिनों दिखलाई नहीं देता क्या एप हुआ तत्र उस वेश्यानि कहा कहीं रोजगार करनेवास्ते गया है यह बात सच समझना चाहिये कि देश्या की मित्र नहीं होतों पहिठे द्रव्य छेकर पीछे प्राण शपरती हैं फि ऊपर से उनकी जिह्मा अमृतरूपी रहकर पेठमें विष भरा रहता हे व द्न्य लेन से पल काम रखकर किसी को प्रीति नहीं करती जब धघुन्धकारी इसतरह मरकर श्र हुआ तब गरमी बरसात व भूख प्यात व जाड़ा उसको बहुत सताने उगा व गोकणन कहीं जन में किसी से सुना कि घुन्धकारी भाई तुम्हारा मरगया व उसकी क्रिया कुछ नहीं तब गोकर्णने गयाजी में जाकर श्राद्ध उसका करादिया व जिस २ तीथें पर गो हु करगका जाना होता वहां २ श्राद्ध घुन्यकारी का करदेते थे लग तीर्थ करने उपरान्त पर गोकर्ण अपने स्थान पर आनकर रात्रिको साये तब उन्हों ने घुन्धकारी को प्रेतयोनि 0 में इसतरह देखा कि कभी वह बेर कभी हाथी कभी बकरा कमा भेसा कभी मठुप्य कभी बड़ासारूप कभी छोटारूप बनजाता था जब गोकणे ने उसको जानकर मन पर घेय्स धरने उपरान्त उससे पूंछ तू भूत या प्रेत वा राशस कान होकर कहां से २ आयांडे अपना हाठ हमसे बतढा तव गोकर्ण की वात सुनकर घुन्घकारी बहुतरोया पर उसे बोलने की सामथ्य नहीं थी जो अपना हाल कह जब गोकण ने देखा कि सर




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