कल्याण [वर्ष ७७] [२००३] | Kalyan [Year 77] [2003]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अड} * प्रियतम प्रभुकी प्रेम-साधना* २९ 9 कफ क कक कफ फ के क का फ़ कफ भी के क फ फ फ फ फ जान लेनेपर हम एक क्षण भी नहीं रह सकते। इस सम्बन्धमे विभिन प्रमाचा्येनि विभिनरूपसे प्रेमाभक्तिका लक्षण किया ै1 भगवान्‌ वेदव्यास भगवानके अर्चन- पूजन आदिमे अनुराग अथवा प्रेमको ही वास्तविक प्रेमाभक्ति मानते है-'पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्य ' (ना०भज०सू० १६) । इस कथनकी पुष्टि विष्णुरहस्य ' मे भी हुई हे। श्रीगरगाचारयने भगवत्कथादिमे अनुरागको ही भक्ति माना है-*कथादिष्विति गभं ' (ना०भ०सु० १७) ¦ महरपिं शाण्डिल्यके अनुसार आत्मरतिके अविरोधी विषयमे अनुराग होना ही भक्ति है । श्रीशङ्कराचार्यजीने भी इसी मतकी पुष्टि की है--आत्मरूपसे प्रत्येक प्राणीमे भगवान्‌ ही विराजमान हैं। अत सर्वात्मामे रति होना वस्तुतत भगवान्‌की भक्ति ही है ओर ऐसी भक्ति करनेवालेको मुक्ति प्राप्त होनेमे सदेह नहीं ।* देवर्षि नारदके अनुसार अपने सभी कर्मोको भगवदर्पण करना और भगवान्‌का किञ्चित्‌ विस्मरण होनेषर व्याकुल हो जाना प्रेम अथवा प्रेमाभक्ति हे-- 'नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति। (ना०भव्सू० १९) अपने समस्त कर्म (वैदिक और लौकिक) भगवानमे अर्पण करके प्रियतम भगवानूका अखण्ड स्मरण करना ओर पलभरके लिये भी यदि उनका विस्मरण हो जाय (प्रियतमको भूल जाय) तो परम व्याकुल हो जाना- यही. सर्वलक्षणसम्पन भक्ति है) मछलीका जलमे, पपीहेका मेषम्‌, चकोरका चन्द्रमामे जैसा प्रेम है वैसा ही हमारा प्रेम प्रभुमे हो! एक पल भी उसके बिना चैन न मिले, शान्ति न मिले-ऐसा प्रेम प्रेमी सत्तोकी कृपासे ही प्राप्त होता है। पर ऐसे प्रेमी सताके दर्शन भी प्रभुकी पूर्ण कृपासे होते हैं । प्रभुको कृपा सबपर पूर्ण है ही, कितु पात्र विना वह कृपा फलवती नहीं होती । भक्तिमती प्रेम- दीवानी मीराबाईके अप्रलिखित पदमे उनकी प्रेमविहलताका पूर्ण परिचय प्राप्त होता है-- हेरीयै तो दरद दिवाणी मेरो द्द न जाणै कोय॥ घायलकी गति घायल जाणै जो कोट घायल होय। जौहरिकी गति जौहरी जाणै की जिन जौहर होय॥ सूली ऊपर सेज हमारी सोवण किसर विधं होय।' गगन मेडलपर सेज पियाकी किस विध प्िलणा होय॥ दरदकी मारी बन-वन डोलँ वैद मिल्या नर्हि कोय मीराकी प्रभु पीर मिटेगी जद बैद साँवलियाँ होय॥ 'दयाबाईकी दीनता ओर विरहवेदना बडी ही मर्मस्पर्शी है। कितने करुणकण्ठसे वे प्रभुसे प्रार्थना करती हैं-- जनम जनम के बीछुरे, हरि! अब रहो न जाय। ` क्यो मन कं दुख देत हय, बिरह तपाय तपाय ॥ चौरी है चितवत फिर, हरि आव केहि ओर। ' छिन उदं छिन गिरि परत, राम दुखी मन भोर॥ वस्तुत मिलन ओर वियाग प्रेमके दो समान स्तर ह। इन दोनामं ही प्रेमीजनोको भाषामे, प्रेमीजनोकी अनुभूतिमे समान रति है। आनन्दस्वरूप भगवानूमे जो राग होता है, वह भगवानूसे मिलनेकी इच्छा उत्पनन करता हे ओर उनका वियोग अत्यन्त दु खदायी होता है, 'परतु भगवान्‌के लिये होनेवाली व्याकुलता अत्यन्त दु खदायिनी होनेपर भी परम सुखस्वरूपा होती हे। भगवानके विरहमे जो अपरिसीम पीडा होती है, उसके सम्बन्धमे कते हैँ कि वह कालकूट वियसे' भी अति भयावह होती है, पर उस विपम वियौग-विपके साथ एक बडी विलक्षण अनुपम वस्तु लगी रहती है-भगवानूकी मधुरातिमधुर अमृतस्वरूपां चिन्मयी स्मृति। भगवानूकी स्मृति नित्यानन्द सुखदस्वरूप भगवानूको अदर हदयस्थलमे विराजमान करा देती है । वस्तुत जहँ-जहँ भगवानूकी स्मृति है वहाँ-वहाँ भगवत्‌-रसका समुद्र लहराता है। इसीलिये जहाँ भोगोके लिये होनेवाली व्याकुलता निरन्तर दु खदायिनी होती है वहाँ भगवान्‌के लिये 'हानेवाली आकुलता भगवत्स्मृतिके कारण सुखस्वरूपा हो जाती है । इसीलिये यदि कोई प्रमी साधकसे पूछे कि तुम सयोग * मोक्षकारणसामग्रया भक्तिरिव गरीयसी । स्वस्वरूपानुसन्धान भक्तिरित्यभिधीयते ॥ (विवेकचूडामणि ३१)




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