जैन धर्म के प्रभावक आचार्य | Jain Dharm Ke Prabhavak Acharya

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Jain Dharm Ke Prabhavak Acharya  by साध्वी संघमित्रा - Sadhwi Sanghmitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सोलह सशोधित द्वितीय संस्करण है। इस पुस्तक का प्रथम सस्करण जिस त्वरा से संपन्न हुआ वह प्रसन्नता एवं प्रेरणा का विषय है । जेन विश्व भारती के अधिकारियों की और पाठको की पुन' पुनः मांग ने द्वितीय संस्करण को तैयार करने के लिए मुम प्रेरित किया । युग प्रधान आचायंश्रौ तुलसी तथा युबाचायं श्री महाभ्रश् जी के निर्देशानुसार मैं इस कार्य में उत्साह के साय प्रवृत्त हई । शीघ्रातिशीघ्र अपने प्रारभ किएकायं को पूणं करने की तीव्र भावना होने पर भी यात्राओ की व्यस्तता के कारण विलम्ब हुआ पर अमृत पुरुष आचायंश्री तुलसी के पचासवे बषं मे मनाये जा रहे अमृत-महोत्सव के पावन अवसर पर यह प्रथ सपन्न होने जा रहा है, यह मेरे लिए विष उल्लास का विषय है। इस प्रथ के प्रथम सस्करण मे १५३ आचार्यो का जीवन-वृत्त लिखकर मैने आचार्यश्री तुलसी अमृत-महोत्सव के साय स्वय को सयुक्त करने का प्रयत्न किया है । जैनाचार्यों ने जैन धर्म की प्रभावना मे अनेक महनीय कायं किए है, उन कृरयो की अधिकाधिक प्रस्तुति पाठकों के लिए कर सक्‌ ऐसा मेरा लक्ष्य रहा है । इसके परिणाम-स्वरूप द्वितीय सस्करण की अपेक्षा शताधिक पृष्ठो को अधिक लिखकर भी महामनस्वी प्रभावक माचायोँ के जीवन महासागरसे बिद मात्र ले पाई हु । देवांना कौ भुभवेलामे दो-चार अक्षत उपहूत करने से जेसी तृप्ति भक्ति-भावित मानस को होती है, वैसी ही तृप्ति इस स्वल्प सामग्री के प्रस्तुतीकरण मे मुके हुई है। साधना जीवन की मर्यादा के अनुरूप जितना इतिहास एवं साहित्य मैं बटोर पाई हू, उसी के आधार पर यह रचना है । जिसमे संभवत बहुत कुछ अनदेखा-अनजाना रहने के कारण अनकहा भी रह गया है । सुधी पाठक एवं इतिहास प्रेमी इस पुस्तक के सबध मे मु अपनी प्रतिक्रियाओ से अवगत करा- एगे तो मैं आगामी संस्करण में यथासम्भव उनका उपयोग करने का प्रयत्न करूंगी । युगप्रधान आबायंश्ची तुलसी ने मु जेन परपरा में दीक्षित कर मेरा अनल्प उपकार किया है । उन्होनि मेरी शान की आराधना, देन की भारा- धना मौर चारि की भाराधना को सवद्धित करने का सदां प्रयत्न किया है। मैं उनकी प्रभुता और कत्त॑व्य-परायणता के प्रति समपित रही हूं । मैंने उनकी दृष्टि की आराधना की है । और उनसे बहुत कुछ पाया है । उनसे प्राप्त के श्रति मैं कृतज्ञ हूं और प्राप्य के प्रति आशान्वित हूं । उन्होंने आशीर्बंचन लिख-




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