देवदर्शन पूजन रहस्य | Dev Darsan Pujan Rahashya

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Dev Darsan Pujan Rahashya by ताजमल बोथरा - Tajmal Bothra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११९) (ग) रूपातीत--मुक्त हो जाने फे बाद सिद्धाचस््था। इमे निर जन निराकौर ज्योति स्वरूप अवस्था का. ध्यान किया जाता है। इसके द्वारा उपर्युक्त यधस्था का चिन्तन मनन फरते हए भाच पुज्ञा कर भपनी शद्धा भक्ति का प्रदशौन एय अपने मावो की चदि की जाती ₹ै। (६) दिशि (दिक्षा) तिक-- दर्शन पूजन करते समय उर्व, मधो पय तिरी दिशा्भों को छोड फर केवल प्रमु के सम्मुख ही दरष्टि रखी जाती है । (७) प्रमार्जन (भूमि शोधन) त्रिक-- चरघला अथवा उत्तरीय वस्त्र ( उत्तरासग ) दवाय भूमि को तीन वार शद्ध किया जाता है । इसका उपयोग चेत्ययन्दन आदि के समय चैठने तथा यडे रहने के स्थान फा प्रथम ट्रष्टि पड़िलेइन भर फिर उत्तरासग आदि से जयणा ( पिवेक ) सदित प्रमाज॑न करके किया जाता है । (८) आलम्बन (अवलम्बन) त्रिक-- (क) घणाधरम्बन--भ्रसु के सन्मुख चैत्यधन्दन सूत्र, स्तुति पब स्तयनं आदि जो भी बोके जाय, उन सत्रों कां उच्चारण, शब्द्‌ माचा पद्‌ पव पद्च्छेद्‌ भादि कौ द्रष्टि से शुद्ध करना दोता हैं । (ल) र्थावर्म्यन--सुञ् श्व स्यतयन मादि जो कुछ मी बोले जाय, उनके अथै पर विचार करते हुए उन्दें इदयगम किया जाता है ।




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