आत्म बोध सार संग्रह | Aatma Bodh Saar Sangrah

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Aatma Bodh Saar Sangrah by हरिसागर जैन - Harisagar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आात्पशिसामावन्य ७ जो सुख चाषे सुक्तिन, नारी सगातिं मेर ॥ ६० ॥ नारी जगमा ते नली, जिण जायो पुञ्प रतन्ने । ते सतिन नित पाय नमु, जगमाते घन धनन ॥ ६४ ॥ तु पर काम करी सदा, निज काञजन करि र्गार। अव्तत्र नक्षत्र करिय तु, किम छुटिस भव पार ॥ दे? ॥ पाप घड़ों प्ररण भरी, ते लीओ हिर भार। ते किम छुटिए जीवडा, न करी घर्म लगार ॥ 53 ॥ इसु जाणी कुट कपट, टचि तु 7ड। ते आडी ने जीचडा, जिन धर्म वचित माड ॥ ३“ ॥ जिण चचने पर दुखं हये, जिण रोय पाणी वरात । छश पटे निज आतमा, तज उत्तम ! ते चात ॥ ६७ ॥ जिम तिम पर सुग्व दीजियि, दुरव न दज कोाय। दुग्ब देः दुग्य पामिये, सुख दै सुग सोय ॥ २६॥ पर तातानिद्‌ा जो करे, कडा ठेव आद ) मर्म प्रकाल परतणा, तथी मलो चाल ॥ 2७ ॥ पटमरासी ने पारणे, एक सिध टरे आहार । करतो वरतेढा नवि र्ट, तसु दुर्गति अवततार ॥ ६८ ॥ रर उपर जिम लेषणु, तिम क्रोघे तप कीप । तम नप जप सजम सुधा, णे काज न निद] ६९॥ पृ फोडिने आउ, पाटी चारित्र सार। खद्टत सुणो सपि तेयु, क्षणम रोव छार ॥ ७०॥




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