शान्तिपथ | Shanti-path

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रस थो पैदा बरने के लिए संत्यदृप्टि अपनाकर चैसे भाव बनाने होगे । यार-वार परस्पाथं करना होमा, लस्ययुवक प्रयन क्रा होगा, तभी हम अपने प्रयोजन में सफल हो सकेंगे । कितु जभौ लक्ष्य भो निश्चित क्या या नही, पाप नही करना, पुष्य करना, लेकिन पुष्य भी लद्य नहीं है। ध्हलौकिक कामना को शास्थकारा ने विप-क्रिया और पारलौक्यि कामना वा शास्नकारा ने गरल-त्रिया कहा है। लक्ष्य वो सही संमझवर किया गवा प्रयाम हौ हम प्रुणता देने वाला है। हमे पाप और पुण्य दोनो से ऊपर उठकर शुद्धाट्म में शाश्वत असीम मुख मे रसन लेता है! अपने-जापवा जानना, पहचानना भौर उसी में रमण करना हं। यट मप्र विलक्षण है, अब्यावाध है तथा देवुलन ह-- णवि अत्यि माणुसाण, त सोग्ख ण विय सब्वदेवाण । ज सतिद्धाण सौक्य, अव्वाबाहू . उवगयाद ॥। -उबवाइय सूत्र, १८० अविनाशी अधिकार परम रसधाम हो । समाघान सर्वक्त सहज अभिराम हो ॥ शुद्ध बद्ध अविष अनादि अनत हो) जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जययन्त हो ॥ जान्तिपय|९




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