दशवैकालिक सूत्र | Dashvaikalik Sutra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रचना एवं नियु हण दशबैकालिक सुत्र की रचना अंग शास्त्रों की तरह गणघरकृत नहीं किन्तु स्थविरकृत है, इसलिये इसको -यणना श्रंग बाह्यम की जाती है। निर्युक्तिकार के अनुसार चतुर्दश पूर्वो से दशवेकालिक सूत्र का आयें शय्यंभव के द्वारा निर्युहण किया गया है 1 हृद्‌ परम्परा है कि जव सय्यभव भटर आयं प्रभव स्वामी के पास सुनि धमे में दीक्षित हुए, तब उनकी धर्मपत्नी सगर्भा थौ पारिवारिक लोगों के द्वारा पूछने पर कि तेरे उदर में कया कुछ है ? उत्तर में उसने सकुचाते हुए कहा-मनख' । समय पाकर जन्म के परचात वाक का नाम माता की उक्तिके आधार पर “मनख रखा । वही वालक लगभग ८ वर्ष का हुआ, तब उसने माता से पूछा कि मेरे पिता कहां हैं? माता ने वालक से कहा कि तेरे पिता तेरे जन्म काल से पुर्वे ही जन मुनि वन गये हैं ! और वे चम्पानगरो के आसपास विचरण कर रहे हैं । स्नेहवश बालक ने अपने खेल छोड़कर, पिता से मिलने को चम्पानगरी की मोर प्रस्थान कर दिया । आयं चय्यंभव दोच को निकले हुए ये, उस समय वालक उधर आर्या ओौर मुनि को नमस्कार किया । मुनि ने दालक से पूछा कि तुम कौन हो और कहां से आये हो ? उत्तर मे वाखक ने कहा, मैं शय्यंभव भट का पुत्र हुं, ओर राजगृही नगरी से अपने पिता जो दीक्षित हो गये हैं, उनसे मिलने आया हूँ । आयं शय्यं भव वाल्ककीवात से मनही मन प्रसन्न हुए, बालक ने पुछा- कि क्या आप मेरे पिता सुनिभ्रौ को जानते है? आयं सय्यंभव ने कहा- हाँ में जानता हूँ, हम और वे एक ही है । बालक ने कहा हे भिक्षु! मुभे उन्हीं के पास दोक्षित्त होना है ! आयं शय्यंभव ने उपाश्रय मे आकर उसे मुनि दीक्षा प्रदान की, और उसके साथ हो सोचा कि-इसका जीवन (आयुष्य) कार कितना शेष है ! पुर्वेश्रुत में उपयोग लगाने से ज्ञात हुआ कि नवदीक्षित सुनि का आयुकारु मातर छः मास काह 1 उतने अल्पकाल में मुनि अपनो सफर साधना से आत्महित कर सके, एेसा ज्ञान विया जाय तो अच्छा । इस भावना से आयं शय्यं भव ने नवदोक्षित गनि के चयि पूवेश्रुत ते दश अव्ययन का निर्यूहण कर दिन के अवसाच काल में पूर्ण किया 1 इसलिये इस सुन्न का नाम दशवकालिक रखा गया । गाथा-




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