सप्तभङ्गी नय | Saptabhangi Naya
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
547 KB
कुल पष्ठ :
32
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १९ )
अनक हु। द्रत्यरूपस ताः एर ह क्याक्ति मतकारूप
द्रव्य एक हे और सामान्य हे ओर पर्याय रूप से
अनेक है, क्योंकि रस गन्ध आदे अनेक ''पर्थ्यीय
रूप है
एकान्त अर अनकान्त ।
एकान्त दो भकार है अथाव सम्यङ्. ओर मिथ्या
इसी तरदद अनेकान्त भी दो प्रकार का है । एक
पदार्थ में अनेक धर्म होते हैं । इनमें से किसी एक
घ्मे को प्रदान कर कहा जाय और दूसरे धर्मों, का
-निपेध नदीं किया जाय. ता सम्यक् एकान्त ई.
यदि किसी एक धर्म का निश्चय कर उस पदार्थ के
ओर सव धर्मोका निषेध किया जायं तो बह मिथ्या
एकान्त दै । ह
पयक्च अनुमान ओर-आगम भरमाणा से अविष
पक वस्तु मेँ अनेक धर्मो का-निरूपण करना सम्य
अनेकान्त हे ! प्रत्यक्षादि भाणो से विरुद्ध एकर
चस्त में अनेक धर्मो की कर्पना करना मिथ्या
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