शुद्धात्मशतक | Shuddhatmashatak

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Shuddhatmashatak by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शद्धात्मशतक १७ ( ३० ) जीवो येव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि । जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो द्‌ दे कोई।। वणदिमय ही जीव है तुम यदी मानो इसतरह । तब जीव ओर अजीव मे अन्तर करोग किसतरह ।। यदि तुम एेसा मानोगे कि यह सव वणदि भाव जीव ही है तो तुम्हारे मत भँ जीव ओर अजीव मे कोई अन्तर नही रहता है। ( ३१ ) जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो। णविस्वंण सरीर ण वि संठाण ण संहणणं।। शुध जीव के रस गध ना अर वर्ण ना स्पर्श ना । यह देह ना जडरूप ना सस्थान ना सहनन ना ।। जीव के वर्ण नही हैं, गघ भी नही है, रस भी नही है, स्पर्श भी नही हैं, श भी नही है, शरीर भी नही है, सस्थान भी नही है ओर सहनन भी नरह 1 ( ३२ ) जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो । ण पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ।। ना राग है ना द्ेष है ना मोह है इस जीव के । प्रत्यय नहीं है कर्म ना नोकर्म ना इस जीव के ।। इसं जीव के राग भी नही है, देष भी नही है, मोह भी नही है, प्रत्यय भी नही है, कर्म भी नही है ओर नोकर्म भी नही है। ३० समयसार, गाथा ६२ ३१ समयसार, गाथा ५० ३२ समयसार, गाथा ५१




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