श्रीप्रवचनसार भाषाटीका | Shreepravachan Bhashatika
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
228
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्रीप्रवेचनसार भाषाटीका । | ११
तथा श्रलग २ नमस्कार करने में व्यक्ति की म्रपेक्षा नमस्कार है।
फिर श्राचार्यने पाच विद्रोह के भीतर विद्यमान सवं ही ्ररहूतो को
भी एक साथ व श्रलग २ नमन करके श्रपनी गाढ भक्ति का परि-
चय दिया है । वतमान मे जतूदीपमे चार, धातुकी खडमे भ्राठ तथा
पुष्कराद्धं मे श्राठ एने २० तीर्थकर श्ररहत पदमे साक्षात् विराज-
मान हैं । इनके सिवाय जिनको तीर्थकर पद नही है किन्तु
सामान्य केवलज्ञानी ह एेरे श्ररहत भी श्रनेकं विद्यमान है उनकी
भी श्राचार्ये ने एक साथ व भिन्न २ नमस्कार किया है । नमस्कार
केदो भेद है। वचनसे स्तुति व शरीरसे नमन द्रव्य नमस्कार है
तथा श्रतरग श्रद्धा सहित श्रात्माके गुणोमे लीन होना सो भाव
नमस्कार है । इस भाव नमस्कारकों टीकाकारने सिद्धमक्ति तथा
योगमक्ति के नाम से सम्पाद्रन किया है । जव तीथेकर दीक्षा लेटे
हैं तच सिद्धभक्ति करके तेते है इसलिये टीकाकारने इस भक्तिको
दीक्षाक्षणका मगलाचरण कहा है । श्रथवा मोक्षलक्ष्मीका स्वयवर
मंडप रचा गया है उसमे सिद्ध भक्ति करना मानो मोक्ष लक्ष्मीक
कठसे चरमाला डालनी र । सिद्ध त्रनन्त दर्शन नान सुख
वीर्य्यादि युणोके घारी हैं तेसा है निश्चयसे मैं हू ऐसी भावना
करनी सो सिद्ध भक्ति है । निमल रत्नचयकी एकतारूप समाधि
भावमे परिणमन करते हुए परम योयियोके वेराग्य चारित्रादि
गुणोकी सराहना करके उन, गुणोके प्रेममे भ्रपने मतको जोड़ना
सो योग भक्ति है। नमस्कार करते हुए भावोमे विशुद्घताकी
ग्रावश्यक्ता है सो जब नमस्कार करने योग्य पूज्य पदाथके गणोमे
परिणाम लवलीन होते हैं तब ही भाव विशुद्ध होते हैं । इन
विणुद्धभावो के काररा पापकर्मोकरा रम सख जाता दै व घट जाता
है तथा पुण्य कमोका रस बट जाता है जिमन प्रारभिक कार्यम
विघ्न वाधाए होनी वद हे जाती ह ।
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