जैन साहित्य और इतिहास विशद प्रकाश [भाग 1] | Jain Shitya Or Itihas Vishd Prakash [Bhag 1]
श्रेणी : इतिहास / History, जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
742
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about जुगल किशोर मुख्तार - Jugal Kishor Mukhtaar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भ० महीवीर जीर उनका समयं ` ६
वज
त
श्रेणिक राज्य करता था, जिसे विम्बसार भी कहते है । उसने मगवानुकी
परिषदोने--समवशरण सभाभोमे-प्रधान ममि लिया है श्र उसके प्र्नो
पर बहुतसे रहस्योका उद्घाटन हुआ है । श्रे खिककी रानी चेलना भी राजा
चेटककी पुत्री थी श्रौर इसलिये वह सिति महावीरकी मातृस्वसा ( मावसी ) 1
होती थी । इस तरह महावीरका अनेक राज्योके साथमे शारीरिक सम्बन्व मी
था। उनमें आपके घर्मका बहुत प्रचार हुआ और उसे अच्छा राजन्नथ मिला है । -
विहारे समथ महावीरके साथ कितने ही मुनि-भाधिकार्मों तथा श्रावक-
बाविकाओोका सघ रहती था । श्रापने चतुविघ सपकी श्रच्छी योजना भौर
बड़ी ही सुन्दर व्यवस्था की थी । इस सधके गणघरोकी संख्या ग्यारह तक पहुँच
गई थी झऔर उनमें सबसे प्रधान गौतम स्वामी थे, जो “इत्द्रसुति' नामसे भी
प्रसिद्ध हे भर समवसरसणुमें मुख्य गणघरका कार्य करते थे। ये गौतम-गोत्री
श्रौर सकल बेद-बेदागके पारगामी एक बहुत बडे प्राह्मण विदान् थे, जो
महावीरकों केवलज्ञानकी सप्राप्ति होनेंके पश्चानु उनके पास अपने जीषाऽनीव-
विपयक सन्देहके निवारणारथ गये थे, सन्देहकी निवृत्तिपर उनके शिष्य बन गये थे
और जिन्होंने अपने वहुतसे शिष्योके साथ भगवानुसे जिनदीक्षा लैली थी । अस्तु ।
तीस & वरषके लम्बे विहारको समाप्त करते भर कृतकृत्य होते हुए, भगवान
अभिजित नक्षवमे हुई है, जैसा कि घवल सिद्धार्तके निम्न वाकयसे प्रकट है--
वासस्स पढममासे पढ़मे पवखम्मि सावणे बहुले ।
पाडिवदयुष्वदिवसे तित्थप्पत्ती दु भरभिनिम्हि ॥२॥
1 कुछ सवेत्ाम्बरीय अरन्थानुसार 'भावुलजा-ममूजाद वहन ।
& घवल सिदधन्तमे--भ्रौर जयधव्मे मी--कुचं भ्राचायकि मवान्रुस्ार एक
प्राचीन गाथाके आधार पर विहारकालकी सख्या २६ वर्प ५ महीने २० दिन
भी दी है, जो केंवलोत्यत्ति श्र निर्वाशुकी तिथियोको देखते हुए ठीक जान
पढती है। और इसलिये ३० वर्षकी सह सड्या “स्थूलरूपसे ' सर्ममकनी चाहिये ।
वह गाथा इस प्रकार है---
वासाणुणत्तीस प्रच य माते य ॒वीसदिवसे य 1
चडविहम्रणएमारेहि वारहदहि गरोदहि विहरतो ॥१॥
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