दृष्टान्त-सागर [भाग 4] | Drishtant-Sagar [Part 4]

Drishtant-Sagar [Part 4] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के दृष्टान्त-सागर, चौथा भाग के ६ जिस दिन्‌ से षह गर मे सदै, नौ मास गर्भ में रद अपने नियम फे अनुसार उसकी वदी स्वना होती रदी । जव वह उत्पन्न हुई, तव इस कहावत के श्रुसार कि कलावती नित्यग्रति चासं चन्द्रकला के समान वदृतती हुई थोड़े ही काल मेँ युवावस्था को प्राप्त हो गई और यहाँ तक यह विज्ञ हुई कि इसने अपने सौन्दर्य तथा चातुय॑ता वा अन्य श्रपने उत्तम-उत्तम गुणों से श्रपने का्येरूप मँ परिणत करनेवाले को इस भूतल दी मे नदीं ; किन्तु लोक-लोकान्तर नें भसिद्ध कर दिया । पुनः उस परिणत करनेवाले ने इसको पुरूप-शक्ति के साथ योग कर इसके अनेकों सन्तान उत्पन्न किये । यह माता अपने सन्तानो को अनेक प्रकार के मोग उत्पन्न कर उनको युगाती श्रौर अपने परिदिन्न रूप व्यापकता से शतशः रूप धारण कर ; यथा--कदीं तो यह्‌ अन्नपूर्णा का रूप धारण करती ; कीं सरस्वती का रूप धारण करती ; कदीं ल्मी कां रूप धार्ण करती ; कदीं दुर्गा का रूप धारण करती है; इसी भाँति कहीं दया, कहीं क्षमा, कहीं शान्ति, कहीं सुक्ति, कहीं मुक्ति, कद्दीं मोहिनी, कहीं खड्गरूप धारण करती और भयछुरी आदि अनेकों रूपों से यह अपनी महदानता से संसार को कित कर रही है । इसने अपने गुणों की सहानता से झपने परिणतकर्ता स्वामी तथा अपने पुँ से इस प्रकार घनिष्ठं सम्बन्ध कर रक्खा हे कि इसके विना न तो वे ही दोनों कुछ कर सकते और न उन दोनों के चिना यदी ङं कर सकती है। इसका यह्‌ भी एकर स्वभाव विलक्तण हे कि जो इसका पुत्र इसके परिणतः कर्ता से मिल इसके स्वभाव को जान इससे वत्त॑ता है उसके लिये तो यह सुखकारिणी हो उसके सम्पूणं मनोरथो को सिद्ध करती है 'और जो पुत्र परिणतकर्त्त के द्वारा इसके स्वसावों को न जान अपने आप इससे बर्ताव करता है, उसे तो यह ऐसे चक्कर ५८




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