फ़ादर कामिल बुल्के | Faadar Kaamil Bulke

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Faadar Kaamil Bulke by दिनेश्वर प्रसाद - Dineshwar Prasad

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about दिनेश्वर प्रसाद - Dineshwar Prasad

Add Infomation AboutDineshwar Prasad

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
ली कि डॉ. धीरेन्द्र वर्मा उसकी नवीनता और विपुलता से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उनको केवल इसी विषय पर कार्य करने को कहा। 1949 ई. में डी. फिल्‌. उपाधि के लिए स्वीकृत उनका रामकथा उत्पत्ति और विकास शीर्षक शोध प्रबन्ध उनकी अक्षय कीर्ति और अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का आधार प्रमाणित हुआ। इसकी एक विशेषता यह भी है कि यह हिन्दी माध्यम में प्रस्तुत हिन्दी का प्रथम शोध प्रबन्ध है। उस समय तक भारत के विश्वविद्यालयों में अंग्रेज़ी में शोध प्रबन्ध प्रस्तुत करने का नियम था जिसे उनके आग्रह पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. अमरनाथ झा ने संशोधित कर उन्हें हिन्दी में शोधप्रबन्ध प्रस्तुत करने की अनुमति दी थी। 1950 ई. में डॉ. बुल्के की नियुक्ति राँची के सन्त ज़ेवियर कॉलेज के हिन्दी और संस्कृत विभागाध्यक्ष के रूप में हुई । अब वे कैथोलिक संन्यासियों के मठ मनरेसा हाउस में स्थायी रूप से रहने लगे । उनकी साधना के सर्वत्तिम वर्ष यहीं व्यतीत हुए । 1950 ई. से 1982 ई. की अवधि उनके जीवन का सबसे कार्यसंकुल काल है । इस अवधि में उन्होंने रामकथा सम्बन्धी अपने कार्य को और भी विस्तार दिया। वे आजीवन इस पर कार्य करते रहे। बहुभाषाविदू होने के कारण उन्होंने अनेक स्वदेशी-विदेशी स्रोतों से प्रभूत नई सामग्री संकलित की और रामकथा के अनेक प्रसंगों का पुनर्लेखन किया । 1962 ई. में रमकथा उत्पत्ति और विकास का दूसरा और 1975 ई. में तीसरा संस्करण छपा और इसका आकार बढ़कर आठ सौ पृष्ठों से भी अधिक हो गया। उन्होंने इसके चौथे संस्करण की पांडुलिपि भी तैयार कर ली थी । उन्होंने रामकथा के अनेक पात्रों और प्रसंगों वाल्मीकि तुलसी हिन्दी और तुलनात्मक धर्मदर्शन पर हिन्दी अंग्रेज़ी फ्रांसीसी और फ़्लेमिश में साठ से भी अधिक निबन्ध लिखे। तुलसी उनके सबसे प्रिय कवि थे जिनकी भगवदूभक्ति और कवित्व से वे बहुत प्रभावित थे । वे प्रति वर्ष तुलसी जयन्ती के अवसर पर भाषण देने के लिए देश के कोने-कोने से बुलाए जाते थे । प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन नागपुर के अवसर पर पवनार आश्रम वर्धा में 14 जनवरी 1975 ई. को तुलसी की प्रतिमा का अनावरण करते हुए उन्होंने ठीक ही कहा था तुलसी ने कहा है-सबहिं नचावत राम गोसाई किन्तु मैं कहता हूँ-मोहि नचावत्‌ तुलसी गोसाईं । प्रत्येक वर्ष तुलसी का सन्देश सुनाने के लिए मैं बहुत दौड़ा करता हूँ। डॉ. बुल्के स्मृति अन्य पृ. 19 वे तुलसीदास को केवल विश्व के महानतम कवियों में एक ही नहीं मानते थे वरन्‌ उनकी भगवदूभक्ति को मानव मात्र के लिए आदर्श मानते थे । यद्यपि तुलसी पर एक विस्तृत ग्रन्थ लिखने का उनका स्वप्न पूरा नहीं हो सका लेकिन उनके निबन्धों तथा रामकथा और तुलसीदास तथा सानस-कौमुदी नामक पुस्तकों से उनकी तुलसी-सम्बन्धी दृष्टि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। भारत आने के बाद ही उन्होंने यह अनुभव किया कि हिन्दी यहाँ की सबसे जीवन-प्रसंग / 15




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now