लखनऊ की नगरवधू | Lucknow Ki Nagarvadhu [ Umaraw Jaan Ada ]
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
194
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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. लखनऊ की.नगरवधू) <, १७
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पौरवरमः इसका हमारा जिम्मा } हम बेचे देंगे! अरि तुम्हारी बातें |.
पकड़ेगा कौन ? लखनऊ में ऐसे मामले दिन-रात 0
जानते हो ? नी
दिलावर या : करोम ? नकद न क
पीरबर्ण : हा, उनकी रोटी-रोजी इसी पर है। वीसियो लड़के-लड़कियां
पकड़ से गया । लखनऊ जाके दाम घड़े कर लिए ।
दिलावर या' भाजकल कहा है ?
पीरवेब्ण : है कहा, लखनऊ में गोमती के उस पार उसकी सुसराल है,
यही होगा ।
दिलावर खा : अच्छा, लड़का-लड़की कितने मे बिवाते हैं ?
पीरवर्स : जेसी सुरत हुई ।
दिलावर खा : यह कितने वो विक जायगी
पीरवष्श : सौ-डेढ़ सो में जता तुम्दारे भाग्य मे होगा ।
दिलावर खा : सौ-डेढ़ सौ ! भाई की क्या बातें हैं ! भरे इसकी सूरत ही क्या
है ! सो मिल जायें बहुत है ।
पीरबर्श : अच्छा इससे क्या, ले तो चलो । मार डालने से बया फायदा !
इसके बादपीरबर्श केकान में दिलावर्खा ने कुछ झुक कर कहा, जोरमैनेनही
सुना । पी रबढ्श ने जवाब दिया, वह तो हम समझे हो थे, तुम या ऐसे मुर्ख हो !
'रात-भर गाड़ी चलती रही 1 मेरी जान सासत में थी । मौत आखों के सामने
फिर रही थी । ताकत खत्म थी, बदन सुन हो गया था । मापने सुना होगा कि
नीद सुली पर भी भाती है । थोड़ी देर में आंख लग गई! तरस खाकर पीरवडश
ने बलों का कम्बल आोढा दिया। रात को कई वार चौक-चौंक पड़ी, आख खुल
जाती, भगर डर के मारे चुपकी पडी रहती ! आखिर एक बार उरते-डसते मुंह
परसे कमली सरका कर देखा कि मैं गादीमेगकेलीहु। पर्देसेक्लांक करदेखा
कि सामने कुछ कच्चे मकान हैं, एक बनिये की दुकान है: दिलावर खा और पीर-
बर्श कुछ खरीद रहे थे। बैल सामने पेड़ के नीचे भूसा खा रहे थे, दो-तीन
गंवार बलाव के पास बैठे ताप रहे थे, एक चितम पी रहा था । इतने में पी रबरश
ने गाड़ी के पास आकर थोड़े-से भुने हुए चने दिये । मैं रात-भर की भूखी थी,
खाने लगी । थोड़ी देर बाद एक सोटा पानी लाकर दिया । मैंने घोड़ा-सा पीया,
न
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