लखनऊ की नगरवधू | Lucknow Ki Nagarvadhu [ Umaraw Jaan Ada ]

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Lucknow Ki Nagarvadhu [ Umaraw Jaan Ada ] by मिर्जा दसवा - Mirza Dasva

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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„~ शकि ४ द . कं . लखनऊ की.नगरवधू) <, १७ / न ग पौरवरमः इसका हमारा जिम्मा } हम बेचे देंगे! अरि तुम्हारी बातें |. पकड़ेगा कौन ? लखनऊ में ऐसे मामले दिन-रात 0 जानते हो ? नी दिलावर या : करोम ? नकद न क पीरबर्ण : हा, उनकी रोटी-रोजी इसी पर है। वीसियो लड़के-लड़कियां पकड़ से गया । लखनऊ जाके दाम घड़े कर लिए । दिलावर या' भाजकल कहा है ? पीरवेब्ण : है कहा, लखनऊ में गोमती के उस पार उसकी सुसराल है, यही होगा । दिलावर खा : अच्छा, लड़का-लड़की कितने मे बिवाते हैं ? पीरवर्स : जेसी सुरत हुई । दिलावर खा : यह कितने वो विक जायगी पीरवष्श : सौ-डेढ़ सो में जता तुम्दारे भाग्य मे होगा । दिलावर खा : सौ-डेढ़ सौ ! भाई की क्या बातें हैं ! भरे इसकी सूरत ही क्या है ! सो मिल जायें बहुत है । पीरबर्श : अच्छा इससे क्या, ले तो चलो । मार डालने से बया फायदा ! इसके बादपीरबर्श केकान में दिलावर्‌खा ने कुछ झुक कर कहा, जोरमैनेनही सुना । पी रबढ्श ने जवाब दिया, वह तो हम समझे हो थे, तुम या ऐसे मुर्ख हो ! 'रात-भर गाड़ी चलती रही 1 मेरी जान सासत में थी । मौत आखों के सामने फिर रही थी । ताकत खत्म थी, बदन सुन हो गया था । मापने सुना होगा कि नीद सुली पर भी भाती है । थोड़ी देर में आंख लग गई! तरस खाकर पीरवडश ने बलों का कम्बल आोढा दिया। रात को कई वार चौक-चौंक पड़ी, आख खुल जाती, भगर डर के मारे चुपकी पडी रहती ! आखिर एक बार उरते-डसते मुंह परसे कमली सरका कर देखा कि मैं गादीमेगकेलीहु। पर्देसेक्लांक करदेखा कि सामने कुछ कच्चे मकान हैं, एक बनिये की दुकान है: दिलावर खा और पीर- बर्श कुछ खरीद रहे थे। बैल सामने पेड़ के नीचे भूसा खा रहे थे, दो-तीन गंवार बलाव के पास बैठे ताप रहे थे, एक चितम पी रहा था । इतने में पी रबरश ने गाड़ी के पास आकर थोड़े-से भुने हुए चने दिये । मैं रात-भर की भूखी थी, खाने लगी । थोड़ी देर बाद एक सोटा पानी लाकर दिया । मैंने घोड़ा-सा पीया, न




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