जपसूत्रम् भाग - 1 | Japasutram Bhag - 1

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Japasutram Bhag - 1 by प्रेमलता शर्मा -Premlata Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जपसूत्रेम्‌ कौ आत्मकथा +. कर्म इत्यादि एक-एक मृ भाव कित प्रकार अपनं विचित्र विकात्त यर परि- णति तक पहुँचा है -'इसके तथ्य एवं तत्त्व का. विदलेपण-समन्वय करते हुए कुछ खण्डों में इतिहास लिखने की वासना हुई ।. किन्तु भूमिका-ग्रन्थ “इतिहास ओ अभिव्यक्ति” प्रकाशित होने के वाद सुप्टि, ब्रह्म इत्यादि के सम्वन्व में अन्यान्य सुचिस्तृत लेख कुछ दूर तक प्रस्तुत हो कर भी श्रकाइय आलोक के मुख-निरीक्षण का भाग्य नहीं पा सके 1 उसके वाद संन्यास-जीवन में सभी कुछ का आमूल पट-परिवत्तन हो गया । तरुण एवं परिणत वयस्‌ का. वह विद्या-रस अपने को व्यान-रस ओर भाव-रस में खो वेठा ।. म्रन्यादि-पाठ ओर अनुशीलन की वह प्रवृत्ति जसे दही एक ओर निःद्योप हुई, वेसे ही दूसरी ओर चाक्षूप दृप्टि का भी ्लास हुआ ॥ यही हुई संस्कृत में 'जपसुचमू' की. आवार-प्रस्तुति । जपसुत्रम्‌ नाना तस्यो के अघीत्त-विद्य पण्डित का विरचित ग्रन्थ नहीं है; श्रद्धालु अनुगृहीत का जनुच्यात ग्रन्य ह 1 वाटर से निवृत्त दृष्टि-मति आन्तर अध्यात्म-संवाद म. ही निषिप्ट हो गई है, यद्यपि व्याख्या में विज्ञानादि वर्हिविद्या के साथ प्रमद्धुत. समझना-वूझना पड़ा है । जपसूत्रमू परमात्मा की इच्छा से ठोप हों चला है । ग्रन्य ६ खण्डों में विदाल भी हू अवश्य । किन्तु और भी सुविशाल नहीं हो सका, इसलिए इसमें भी गए ०निट छशिपा050]ुफए का “स्वप्न पूरणद्धि मूत्ति में वास्तव नहीं हो सक्ता! सूत्र एवं कारिकावली में उस विराट्‌ समन्वय का दिग्दर्गन-मूव् सम्भवत: मिल गया, किन्तुं अनवगाहित महारहस्वारिवि दसन के पुरोभाग में रह गया । ग्रन्थ की च्याच्या में वेद-तन्व्र-पुराणादि के तत्व आर्‌ चर्या (11८01 स्पात्‌ [०८४१ ८९) दोनों के विपय में अनन्त अगाघ रहस्य का कितना-सा अंग यहां खोल कर देना जा सका हूँ ! प्रसद्भतः सूत्र के प्रयोग एवं दुष्टान्त बहने में यत्किस्चितू ही हुआ है । बह कामतो ९11\^10- {112 (विन्ववेपात्मक) ह । भावी विघाता यवासमय उस काम को अपने ग्य्य न ग्य न क डः ~ नारः व य्य ड ८९ + 1




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