महाकवि पुष्पदंत | Maha Kavi Pushpadant

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Maha Kavi Pushpadant by राजनारायण पाण्डेय - Rajnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६. 3 चगाल के निवासी सस्कृत में तयालाट या गुजरात के प्राकृत मे विशेष रुचि रखते थे, चहाँ मरुभूमि, टकक श्रौर भादानक के लोग श्रपश्रसा का प्रयोग करते थे ।१ उसने यह भी कहा है कि सुराष्ट्र तथा त्रवण (मारवाड) मे जन-सामान्य भ्रपश्नर ही वोलते थे ।* यहाँ मरुभूमि का भ्रमिप्राय राजस्थान से तया टक्कर का सिंधु एवं विपादा के मध्यवर्ती क्षेत्र से है । मादानक को स्थिति विवाद-ग्रस्त है । एन० एल० डे महोदय भागलपुर से नी मील दक्षिण में स्थित भदरिया को भादानक मानते हैं, जबकि डॉ० उदय नारायण तिवारो पदिवमोत्तर प्रदेशमे उसे टक्क के श्रास-पास का कोई म्ान वतलाते ह 13 हजारी प्रषाद जी द्विवेदी के श्रनुमार यह वुन्देलखड मे कोई स्थान था ।* जो हो, पर इतना तो निश्चित है कि राजकषेत्तर के समय मे यह्‌ कोई प्रसिद्ध स्यान र्हा होगा । वस्तुत ६० वो भतान्दौ तरू श्रपश्रश किसो क्षेत्र विकेषको भाषा न रह्‌ कर प्राय समस्त भारत (सुदूर दक्षिण को छोडकर) कौ साहिर्क भाषाथी। हा, यह श्रवश्य है कि इतने भ्र/घक क्षेत्र-विस्तार के कारण उसमे स्थानीय भेदो का होना स्वाभाविक ही था । तो भी उस समय पश्चिम श्रपञ्रश (शौरसेनी) को टकसलो भापा माना जाता था । इसी वात पर बल देते हुए डॉ० सुनीति कमार चादुर्ज्या ने पूर्व के कत्रियों द्वारा पश्चिमी अपग्रश मे कविता करने को परम्परा को बहुत बाद तक चलती रहने का उल्लेख किया है ।* पूर्वे-पद्चिम को श्रपम्रश में अभेद स्थापित करते हुए श्री मोदो ने दक्षिण की भ्रपक्मश को भी पश्चिमी झपस्रद् के झनुरूप वतलाया टै । इस प्रकार वे गुजरात के हेमचन्द्र, मान्यखेट (दक्षिण) के पृष्पदन्त } तथा वगाल के दोह्‌।कोशो एव चर्यापदो के रचयिता सरह, कण्ट श्रादि बौद्ध सिद्धो की श्रपम्नद् को एक हो कोटि का होना सिद्ध करते हैं 1६ श्रपम्नश को इतनो तीव्र गति से देश के विशाल भू-खड की भाषा वनाने का सर्वाधिक श्रेय तत्कालीन राजागम्रो को है । श्रयावधघि उपलब्ध ग्रपथ्चश रचनाग्रो के भ्रष्ययन से प्रतोत होता है कि पदिचिमी तथा दक्षिणी मारत मे दिगम्बर जन (१) काव्य मीमासा, पू० प१। (२) वही, १० ३४1 (२) हिन्दो मापा का उद्गम श्रौर विकास, मारतो भडार प्रयाग (स २०१२), पृ० १र२३ (४) हिन्दी साहित्य को भूमिका, पृ० २४५ । (५) ग्रोरिश्जन एण्ड उवनपमेट श्राफ वगालो लेग्वेज, भूमिका पृ० ६१ (६) हेमचन्धनु श्रपश्रश, पुष्पदतनु अपश्चंश श्रने दोहाकोशनु श्रपभ्रंश एकज भ्रपश्चशदे। श्रपश्रश्च पाठावलौ, धौ मधूसूदन चिमनलाल मोदो, सूमिका प्‌० १८ ।




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