प्रत्यक्षजीवनशास्त्र | Pratyakshajivanshastra

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : प्रत्यक्षजीवनशास्त्र  - Pratyakshajivanshastra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about हीरालाल शास्त्री - Heeralal Shastri

Add Infomation AboutHeeralal Shastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
बचपन, चिद्यार्थिकाल (जोवतेर में) [ ११ किया । भ्रपने पांचों छोटे भाइयों के विवाह मेरे जन्म के श्राटेक साल के भीतर उन्होंने कर दिये, एक भाई का विवाह दो वार किया । पर वे खुद उस जमाने में और उस उम्र में जैसे के तैसे एकाकी विधुर ही बने रहे । मेरे दो छोटे काकाजी “परदेश' में रहते थे । उनमें से एक की सगाई हुई तव उनको बुलाने के लिए उधार पसे लाकर तार दिया गया तो उनका जवाब झ्ाया कि सफर खर्च भेज दो तो मैं श्रा जाऊं । विवाह की लागत का रुपया वे लाएं, इसके वजाय उनके खुद के आने के लिए सफर खर्च भेजा गया तव वे ्राये । ऐसी कमाई वे करते थे । ऐसी हालत में ही लगातार तीन विवाह कुछ महीनों के भीतर हुए तो गांव वालों ने समका कि ये लोग वड़े “भागवान” ह । उन दिनों ५०० रुपये लगा दिये जाते तो लड़के का विवाह वहत अच्छा समस जाता था | मेरी माता का देहान्त मेरे नानेरे में हुना था । मेरे पिताजी हम दोनों को लाने के लिए ससुराल गये थे । उन्हीं दिनों उनके वहां रहते ही मेरी माता चल बसी । तो मेरे पिताजी मुभक़ो अकेले ही लेकर जोवनेर पहुंचे । घूँघली सी झलक पड़ती है कि मेरे पिताजी मुझे अपने कंधे पर बिठा कर लाये थे । मेरी दादी ने पूछा, भाया श्रीनारास-- वीनणी कठे ? पर वीनणी तो स्वगे सिघार चुकी थी । घर में कुहराम मच गया । उस सारे हृद्य के विचार मात्र से मैं झ्ाज भी कांप उठ्ता हूं । मुक्ते पड़ोस में रहने वाली कानी नाम की गुजरी माई के स्तन से दूध पिलाने का इन्तजाम किया गया । कानी _ माई को जब तक चहू जिन्दा रही मैं मानता रहा । वह चेहरे मोहरे से मुझे “वंवीन विवटोरिया” सी लगती थी । मेरी दादी और वुहा ने मुझे पाला । छः भाइयों के परिवार में मैं बिना माता का अकेला आर भाग्यगाची समभा जानें वाला एक मात्र वच्चा था । इसलिए मेरा वेहद लाड़ प्यार हुमा । जो कुछ होता सो मेरे लिए ही होता । मेरा कोई पांतीदार नहीं था । इसलिए में इकलखोरा वन गया । काभी में मामुली सा भी वीमार होता तो मेरी दादी और तमाम घर वाले मुभे घेर कर वैठे रहते और मेरी दादी को मैं यह कहते सुनता -- “भगदात ई की सारी पीड़ा मरने दे दे” एक वार मुभे वबुख्यर था उसी समय किसी पड़ौसी का लावणा शझ्राया, सो मेरी दादी ने मुझे थोड़ा. सा खिला दिया । मैंने खा लिया तो वह॒ बहुत खुश हुई । परन्तु मेरे बुखार ने तो श्राखिर तथफाइड का रूप ले लिया । लगातार दुवारा टाइफाइड हो गया श्र मेरी ऐसी हालत हो गयी कि मेरे बचने की आशा छूटने लगी । उसी हालत मेँ मे छोडकर मेरे पित्ताजी रातो रात पंदल चलकर १० कोस दूर एक गांव पहुंचे जहां एक भ्रादमी में किसी एक स्वगवासौ वावाजी का भाव राता था। वावाजी ने मेरे पिताजी से कह दिया-भोला जा वन्यो ठीक हो जासी 1“ मैं वच गया ] मे शायद ६ सालका हुमा तव. मु मदरसे विखा दिया यया था) जोवनेर के यशस्वी ठाकुर साटेव कर्णचििहिजी ने मेरे जन्म के पाचक साल पहले ही जोवनेर में हाई स्कूल खोल दिया था । उक्त हाई स्कूल को ठाकुर साहव कर्णसिंहजी के सुपुव रावल साहब




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now