एक वासंती रात | Ek Vasanti Raat

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Ek Vasanti Raat by मनमोहन मदारिया - Manmohan Madariya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लेकिन मैं रास्ते पर श्रागे बढ़ न सका । मुझे महसूस हुमा कि रम्भा की खामोशी की श्रोट में हलचलों का तुफ़ान जुपा हुम्मा है शायद बहू कोई बात सुभसे कहना चाहती है । मैंने उसके क़रीब बढ़कर पूछा बताओ न रम्भा क्या बात है ? प्रचानक ही वह बोली यह मेनन बहुत दुष्ट है 1 मेनन ऊँचा-पुरा गठीले डील-डौल का एक ईसाई युवक था श्रौर जनलिउम की क्लास में हमारा सहपाठी था । मिस रम्भा की इस बात का श्राख़िर क्या मतलब ? मैं पूरी बात सुनने के लिए चौकनना हो गया लेकिन रम्भा तो जसे विमटों की बोतल की तरह खल गयी थी । अरब वह हँस रही थी उसके चेहरे रहेंसी का फेन इस तरह उभर श्राया था. जसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था लगातार क़हक़हें हूंपते हुए ही वहू सामने खड़े एक रिक्शो की श्रोर बढ़ गयी श्रौर उसमें बैठकर तेज़ी से हो गयी । हँसी से दोहरी होती हुई मिस रम्भा सच- सुच मेरे लिए एक पहेली हो गयी । बिजली की चमक की तरह वह मेरे खयालों में उतर गयी मैं उसके बारे में सोचने के लिए विवश था । जो बात पहले एकाएक पकड़ में न श्रायी थी उसे किचित गौर करने पर मैं सहज ही समभक गया--मेनन ने रम्भा से ज़रूर कोईशरारत की होगी उसे छेड़ा-छाड़ा होगा उसकी नज़र में रम्भा चढ़ गयी है तभी तो आ्रोह इतनी सीधी-सी बात यह रहस्योदूघाटन विचित्र था । मैं हंक्का-बक्का रह गया । एकाएक विश्वास नहीं होता था लेकिन श्विद्वास भी तो नं कर सकता था - रम्भा झाख़िर मुमसे झूठ क्यों बोलेगी ? उस दिन के बाद मैं थेनन पर उसकी हलचलों पर नज़र रखने लगा लेकिन मुझे कभी कोई ऐसी बात न दिखी जिससे बह दुष्ट समभा जा सके । वह एक हुंसमुख श्रौर वाचाल युवक था । लेकिन वह कभी भहा व्यवहार न करता श्रौर क्लास में रम्भा उसके करीब भी बैठी होती तो भी वह उसमें कोई रुचि न लेता--कम-से-कम मुकते तो ऐसा ही प्रतीत होता था । लेकिन रम्भा का एक ही हुठ था मेनन के प्रति उसकी शिकायतों का खजाना उत्तरो- त्तर बढ़ता जा रहा था । एक दिन उसने पुछा मैं क्या ऐसी सुन्दर हूँ जो लोग-बाग मुफ्ते एकटक घुरें हा प्रत्युत्तर में मैंच एक उनटती-सी निगाह उसके चेहरे पर डाली फिर - कहा तुम बदसुरत तो सलहीं हो लेकिन फिर भी लोग तुम्हें घूरें क्यों ?




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