रीतिकालीन काव्य में लक्षणा का प्रयोग | Ritikalin Kavya Mein Lakshna Ka Prayog

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Ritikalin Kavya Mein Lakshna Ka Prayog by अरविन्द पाण्डेय - Arvind Pandey

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अरविन्द पाण्डेय - Arvind Pandey

Add Infomation AboutArvind Pandey

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
२२ रीतिकालीन काव्य मे लक्षणा का प्रयोग ठेसे शब्द भी प्रयोग मे प्रचलित है जिनके भाव तथा अभिप्रेत अथं मे वडा अन्तर है, रेस स्थलों मे अभिप्रेत अथं कौ स्थिति ही नहीं होती--शशविपाण', वन्ध्यापुत्र आदि दष कोटि के प्रयोग हँ जो क्रिस गमावात्मक वस्तु का बोध कराते ह । न्याय तथा वैशेषिक दाशंनिक्ो ने घटाभाव पटाभाव मादि शब्दों कौ स्वतन्त्र सद्या स्थापित की है और “अभाव को मलग से पाथं मानकर इससे अथं प्रतोति भी मानी है ।”* इसलिए घट से भिन्न वस्तु “घटामाव' मानी गई है । अर्थं बोध वाक्य द्वारा होता है। महाभाष्यकार के अनुसार “शब्दों का वहं समूह जो पूर्ण अर्थ की प्रतीति कराता है उसे वाक्य कहते है ।' भतृं हरि ने वाक्य में क्रिया का होना अनिवायं माना है । साहित्यदपंण सार के अनुसार--'वावय वह शब्द समूह है, जिसमें योग्यता, भाकांक्षा तथा सन्निधि हो ।”* वाक्य के अतिरिक्त महावाक्य भी माने गए हूँ जो वाक्य के समूह द्वारा एक उद्देश्य का वोघ कराते हैं-- रामायण, महाभारत, रघुवंश इसके उदाहरण हैं । शब्द के भौतिक स्वरूप के सम्बन्ध में भारतीय दाशंनिकों के विचार व्यक्त करते हुए “कदम्बमुकुलन्याय' [ जिस प्रकार कदम्ब का मुकुल चारों ओर से विकसित होता है ] तथा 'वीतिरंगन्पाय' [ जिस प्रकार जल में तरंग उत्पन्न होकर चक़ाकार घूमती हुई सभी ओर जाती हँ तया जिस प्रकार जल मे एक लहर से दूसरी निकलती है गौर अन्त मे तट से जाकर टकराती है ] का आश्रय लिया है 1 इस तरह इस निष्कपं प्र पहुंचते है किं शब्द के उच्चरित होने पर उससे दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा'***** शन्द उदुभूत होता जाता है । अतः श्रोता जिस शब्द को सुनता है, वह ठीक वही नही है जिते वक्ता ने उच्चारण किया है । शब्द के इसी भौतिक गुण मौर प्रकृति के कारण 'ट्रांससीटर' तथा रेडियो का आविष्कार हुआ है 1 शब्द वड़ा दुतिगामी है । इसके सम्बन्ध मे आधुनिक विज्ञान का सत है कि वक्‍ता शब्द को सबके वाद में सुनता है । शब्द को मीमांसक “नित्यः, नैयायिक “अनित्य' तथा वैयाकरण “'नित्यानित्य' कहते है । व्याकरण मे शब्द को दो वर्गो मे विभक्त किया गया है, एक नित्य, दषरा सनित्य 1 ध्वन्यात्मक शब्द नित्य' मौर वर्णात्मक शब्दञानित्य माने गर हैं । शब्द में संकेत ग्रह होता दै। मीमांसक शव्द से केवल 'जाति' का वोव मानते है, “न्यवित' का बोघ मान्तेप से मानते हँ । नैयायिक जातिविशिष्ट व्यक्तिः में १. द्रव्यगुणकमंसामान्य विहोपसमवायापावाः सप्तपदा; |” - तकं सग्रह, प्रत्यक्ष परिच्छेद २ सं० १६९० धि० २. “वाक्यं स्याव्‌ योग्यताकांक्षासत्तियुक्त: पदोच्चय: 1” सा० द० परि० २, फा० १,




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now