सुंदर साहित्य - माला | Bharatiya Darshan

Bharatiya Darshan by श्री ब्रजनन्दन सहाय - Shri Brajnanden Sahay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लौकिक दोष नैतिक अपराध नहीं हुए । पर जो कहीं इस ईंप्या- घ. लोभ-मोदद की मात्रा अधिक बढ़े गई तो फिर कया पूछना डे री जुआ्ाचोरी मुकदमेबाजी यहाँ तक कि हत्या की नौबत पहुँची | गेनों पक्ष बखेड़े में पड़े दुःखी हुए । लोक-परलोक दोनों गये । बस सुख-दिवस का देखते-देखते श्रवसान हो गया। सुख-वसम्त अधिक देर तक नहीं ठद्दरता । रही दु ख की बात । इस दु ख-रजनी का श्रनन्त विस्तार है । यह दुपद-सुता के चीर-जैसी बढ़ती दी जाती है । इसका श्रन्त सहसा सहज में नहीं होता । तब हाँ है यह मेद-मोचक । यद्द वह घरिया है जिसमें पड़कर सब एकदिल हो जाते है। दुःख में भाव-मेद जाति-मेद धर्मे- मेद देश-काल का भेद नहीं है । इसके रूप में शुण मे श्रन्तर नहीं यह है झ्रपने-पराये सबके छुदय में एक ही भाव उत्पन्न करता है-- सददनशीलता समवेदना सहानुभूति । इसकी प्रगाढ़ता झहम्भाव को नष्ट कर देती है । दुःख का काल सुदीर्घ है । इसे हमलोग काल-माप में विभक्त नहीं कर सकते और न इसे नाप ही सकते हैं । इसका लव-निमेष सुख की घड़ी से बड़ा होता है । सुख के दिन पलक मारते बीत जाते हैं। दुश्ख की घड़ी काटे नहीं कटती । दिन जाता है रात श्राती है। जान पड़ता है यह समाप्त दी नहीं होगी । ऋतु-परिवत्तन का प्रभाव इसपर नहीं पड़ता । दुःख के समय दुखिया के ऊपर ऋतु क्या असर करती है ? शीत में उसे जाड़ा नहीं गरमी में ल्रू नहीं पावस में वर्षा नहीं वह डे




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