रीतिकालीन काव्य पर संस्कृत काव्य का प्रभाव | Ritikaleen Kavya Par Sanskrit Kavya Ka Prabhava

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Ritikaleen Kavya Par Sanskrit Kavya Ka Prabhava by दयानंद शर्मा - Dayanand sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्कथव । ८05 विवेचन के प्रसंग में कप्तिपय स्थानों पर रीतिकाल के अन्य कवियों के उदाहरण भी सहज रूप में अवत्तरित हुए हैं । विपय के स्वरूप की व्यापकता तथा विस्तार भय के कारण इस प्रबन्व मे विपय को शंगार तक ही सीमित रखा गया है तथा विहारी, मतिराम, देव, पद्माकर, इन चार कवियों के काव्य को तुलना का प्रमुख आधार वनाया गया है । इससे मौलिकत्ता की दृष्टि से रीतिकालीन कवियों के काव्य का एक पक्ष स्पप्ट हो जाता हैं । प्रस्तुत प्रवन्व दुल मिलाकर पाँच अध्यायों में विभाजित किया गया है । पहले अध्याय के अन्तरगत शगार की परिभाषा, उसके स्वरूप, भेद एवं विभिन्न मव- यवो पर विचार किया गया है । उसके परचात्‌ पृष्ठभूमि के रूप में संस्कृत तथा हिन्दी साहित्य की शगार परम्परा को प्रस्तुत किया गया है । सस्कृत्त के वैदिक-साहित्य से केकर रामायण, महामारत, पुराण, कालिदास साहित्य, यश्वघोप-साहित्य, अरका- रिक संस्कृत साहित्य, मुक्तक-साहित्य में शंगार-परम्परा की चर्चा की गई है । उसी प्रकार हिन्दी काव्यों की श्गारिक परम्परा का. दिग्दशंत किया गया है, जिसमें मादिकाल, भक्तिकाल तथा रीतिकालीन काव्य में वर्णित श्प्गार-परम्परा की चर्चा समाविष्ट है। दूसरे भध्याय में सयोग-श्ंगार के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए रीतिकालीन हिन्दी तथा सस्कृत काव्य मे उपलब्ध समान प्रसंगों की तुछना की गई है । इसके अन्तगंत परस्पर-दर्शन, स्पर्गालिंगन, संकेत, होली, जलक्रीड़ा, निषेघात्मक स्वीकृति, सुरति-केलि, सुरतान्त आदि प्रसंगो का समावेश किया गयादै। तीसरे अश्यायमे विग्रलम्म-्गार्‌ का विवेचन किया गया है । यह अध्याय कई दृषप्टियों से महत्त्वपु्ण॑ माना जा सकता हूं रीतिकारीन बारोच्य कवियोने पुर्वराग, मान भौर प्रवास-इन तीन भेदों को ही मुख्यतया ग्रहण किया है । मत: इस अव्याय के अन्तर्गत इन तीनों भेदोपभेदों के अतिरिक्त अमिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गृणकथन, उद्वंग मादि वियोग कौ दस दकश्षामोंका भी समावेश किया गयाहै। संस्कृत तथा मालोच्य रीतिकालीन हिन्दी काव्यके विप्ररुम्म-गार उदाहरणो की तुलना प्रस्तुत कर दोनो की समान तथा विषम भूमियों कौ भोर सकेत क्रिया गयादहै। चौथे अध्याय में श्ंगार के एक महत्त्वपुर्ण यंग नायक-नायिका भेद का विवे- चन किया गया है । संस्कृत तथा रीतिकाछीन हिन्दी काव्य में न।यक-नायिका भेद विषयक प्रसंगों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । नायिकाओं के अन्त- गत स्वकीया, परकीया तथा सामान्या के मुख्य भदोपभेदों एवं नायको के अन्तगेत पति, उपपति तथा वैजिक-इन तीन भेदोपभेदों पर आवारित प्रसगोँ का विवरेण है। पाँचवें अध्याय में स्यूगार के उद्दीपन-पक्ष नखशिख' का विवेचन किया गया है । इसमें सर्वप्रथम ने त्रो को मुख्य रुप में ग्रहण किया. गया है, क्योंकि रीतिकालीम




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