राजनीतिक निबंध | Rajneetik Nibandh
श्रेणी : राजनीति / Politics
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
435
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about ईश्वर चन्द्र ओझा - Ishwar Chandra Ojha
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand){ १ 1
राजनीति बी पाठ्य पुस्तक वनी हुई है । भरस्तू वो हम सच्चे प्रपां भएक महर
राजनीति विकारदब्ह सबने हैं ।
च्वेदो भौर भ्रमत दोनो के शाज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न दिधार
हैं। प्लेटो के घनुसार राज्य को. उत्पत्ति हमारी भाधिक भावश्यवताप्रों के श्रम-
विभाजन प्रौर बायंदद्षता के कारण हुई । वोई मी व्यक्ति भ्रेला भपती समस्त
झावश्यवठाधों को उत्तम रुप से पूर्ण नही कर सकता । सामाजिक धर राजनीतिक
अस्तित्व क्रा प्रावारं सामाजिक मरितत्व हो है जो कि, इस प्रदार प्रायिक
प्रावप्यक्रता दै । व्यक्ति भाषिक प्रावश्यकतामों द्वारा सहयोग के लिए वाप्य होते हैं
भौर राजनीतिक व सामाजिक जीवन का यही म्ाघार है । रुचि एवं नाये बरतने को
योग्यता मिन्ननभिष्न होती है धौर किसी भी समाज में इन विभिन्न बायों के समन्वय
एवं संगठन के लिए विमी राजनीतिक सत्ता वो भावश्यवठा पढ़ेगो । इस प्रवार इन
कार्यो था समन्वय द् विना श्रोध्ट जीवन् प्रमम्मव है । भ्ररस्तू के लिए राज्य एक
प्राइतिक सस्या है। वह राज्य को परिवार के समान ही प्राइतिक मानता है 1
माधिक सावश्यकतामों वी प्रति हेतु एक भार पुरुष एवं महिलाएं भौर दूसरी मोर
स्वामी एवं दास परिवार मे सगद्ति होते हूँ । ये परिवार सम्मिलित होकर प्राम था,
भर प्राम सम्मिलिठ होबर नगर-राज्य वा निर्माण बरते हैं । इसलिए वह राग्य को
परिवार बा ही एक वृटुद स्वरुप मानता है । घरततू वे शब्दों मे :
“राज्य धपनी रटति बार ही परिवार प्रौ व्यत्त ते नौ पूवं वा बर्मोषि
यह् पए प्रपने एक भागते प्रवं शा प्रवायम्मावी रप ६ ।*“ वह्ग्यक्ति, जो
वि समाज में रहने योग्य नटी दै भ्रयव। जिष्ठकौ समाज कौ इसलिए
भ्रावप्पक्वानहौ टै रिषं स्वदःपूटै, याचो पगुटैयारईर्वर। वह्
राज्य था बोई माग नहीं हो सबता 1 रहति ने धत्येव मनुष्य मे सामानि
महति का रोपरा श्रिया है ।“
इसलिए भरसतू दै प्रनुभार स्यक्ति स्वभावत. शरामाजिक एव राजनीरिक प्राण है 1
वे राज्यों व्गोक्रिणमे भौ भिता रते है1 प्तेटो रे प्रतुसारवभषट
राज्य मे-जी कि केवल दन्तकं रुप से हो सम्मव है भौर जिसका व्यावहारिक
पर्ठित्व सम्मव नहीं है--शान हो सर्वोच्च होगा; भर शायक इस सर्वोच्च ज्ञान को
जानने दाने दार्शतिक होंगे | ठदुपरान्त वे राज्य झाड़े हूँ जितमें शासन दा्शतितों द्वारा ते
होकर, नियमो दरार होता है । प्लेटो के पनुसार यह टूसरी श्रेछी बा सर्वर प्ठ राग्य
है घ्रौर इसलिए श्रपूण है । घन्त में वे राज्य हैं जिनमें म ठो दार्शनिक राज्य वरते हैं
शोर न नियम ही, विस्तु जिनमे प्रज्ञान वा शासन है । म्ररस्तू श्रपने राग्य के दर्गीवरण
में झ्धिक वैशञाविक एवं व्यावहारिक है। उसके म्नुसार वर्गीवरण के दो मुख्य भाघार
ईष) यन्य मे शिठिने व्यक्तियों के हाय में शक्ति दै गौर (२) इस धक्ति वा उपयोग
User Reviews
No Reviews | Add Yours...