भावना विवेक | Bhavna Vivek

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[४1 संसार से पार करने वाले ये ही भाव नमस्कार करने योग्य हैं । यान्‌ स्वभावान्‌ बिना आान्ताः विभ्रमाक्रान्तेतसः। ते मावाः स्युर्निरावाधं मश्नमस्टृति -गोचराः ॥२॥ मिथ्याज्ञानी जीव जिन सम्यग्द्शनादि स्व भाव-स्वाभाविक धघर्मो-की प्राप्ति के बिना संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं वे स्वभाव बिना किसी प्रकार की बाधा के मेरे नमस्कार के विषय बनें । जब तक सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति नहीं होती तब तक इस जीव पर चिपरीत ज्ञान का प्रभाव रहता है श्रौर उसके प्रभाव के कारण ही श्रपने दित-अहित को न पहचानता हुआ यह श्रनेक तरह से कमेबन्ध करके श्रपने संसार की सन्तति को बढ़ाता रहता है और चतुगति मे भ्रमण करके जन्म मरण के दुःख स्ता रहता है । श्रथवा योँ कहना चाहिये कि सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति न होना ही जीव का संसार है श्रौर उनकी प्राप्ति ही मोक्ष है। उक्त पथ से उन्हीं परम मोक्ष के कारण भूत शुद्ध स्वभावों को श्रपने नमस्कार के विषय बनाना चाहते है । श्रौर “श्रेयांसि बहु- विघ्नानि यानी--श्रच्छे कामों मे बहुत विध्न श्राति है-इस कथन का ख्याल करके श्रपने इस नमस्कार रूप पवित्र काये में कोई विघ्न न आवे इसके लिए “निराबाधं पद देकर इसमे विध्न का रभाव होने की प्रार्थना श्रौर उत्कट इकछा भी प्रकट करते है । आगे के पद्य में यह. बतलाते हैं कि झरिहंत सिद्ध आचाये




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