अज्ञेय की औपन्यासिक संचेतना | Agyeya Ki Aupanyasik Sanchetna
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
133
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आधुनिव हिन्दी उपस्यास : याव्रा-सदमं मौर मनेय 15
रचनाओं में व्यित के अम्तमन को सूम रेखाभी का परययवेक्षण, विदसेषण भौर
भाक्लन । स्पष्ट है किं माघुनिक हिन्दो-उपन्यास्न समष्टि-स्पूलता से अलग हटकर
व्यष्टि-मूकषमना फी दिशा म मिमान है ।
्िसचन्द के “ के “गोदान' (सन् 1934-36 ई०) ^ जैनेन्द्कुमार के उपन्यास
नीता (सन् 1934 ६०) क रघना-गाल (1934 ई: १ विदत दक दोते
हट मी दोनो मे एक व्यापक और मौलिक अन्तर यह है कि एकं (्रेमचन्द) का
उपनीव्य सामाजिक सतना और ययाये माव-शीय है जिक सतना ओर यथा माव-शष है तो दूसरे_(लैनन) को
उद्देश्य है--व्यवितिमन के माम्त का चित्रण प्रस्तुत
मस्म “गलन्द के परकतों = य
करना, “प्रेमचन्द के परवर्तों युग की समस्याएं थी, पाप पुष्य की समस्या, प्रेम
विवाह की समस्या, शरीर-शुद्धि और आत्म धुद्धि र मत्वा समस्य
पक्त शूरम और द्यित विथेय की स्स्वाएँं वो! नं समस्याम कै मत्यागौ क
निद्तेपग मिस समाधान के लिए मक क परवत्ता उप्यासवार रो नै मुधिम-
से-अभिक मनोविज्ञान और मनोविश्लेपण मनोविज्ञान और मनो विद्लेपण की सहायता ली । ययाथंवाद की दिशा
3
मे यह दूसरा चरण था ।” इस दूसरे चरण की शुरूआत होती ई जन कै कथो जनेरद्र के कथा-
`ततो स। साक कहा गया, इसमे नल पात्र) प्रधान 4 वस्तु महीं #
इसलिए “वस्तु” का मूल्याकन इनमे नहीं होता, होता है व्यक्ति के और
“पर हद बोर
अचेतन मन 5ंफ-८्०णवलठ्णड रू एसिटठर पएरञभल्क् & ए०९००७००४३ पण्} करा विदलेयणं
सध्ययन, ~~ मनोविज्ञान का प्रमुख विपय है । चूंकि व्यक्ति प्रमुख है, इसलिए
वो को भीड़ ऐसे एमरनादिश्लेपनात्मक) उपन्यास मे रहो होती र्मे
सुनीता की प्रस्तावना मे अपना दृष्टिकोण इन शब्दों में व्यक्त किया है:
“ * पुस्तक में मैंने व हानी कोई सम्वी-चौडी नही कही है। कहानों सुनाना मेरा
उददधय ही नहीं । अत, तीन-चार व्यक्तियों से ही मेरा काम चल गया है। इस
विदव के छोटे-से-छोटे खण्ड को लेकर ही हम अपना चित्र बना सकते हैं घर
उसमें सत्य के वर्णन पा सकते हैं भ्रौर उसके द्वारा इस सत्य के दर्दान करा भी
सकते हैं। जो ब्रह्मांड में है, यही पिण्ड में भी हैं। इसलिए श्रपने चित्र के लिए
बडे कंनदास की जरूरत मुझे नहीं सगी । थोड़ें में समप्रता क्यों नहीं दिसलाई.
लासक? ।
“सपमुंवत उद्धरण से तोने बातें हाय लगती हैं : की
4. कहानी कहना था सुर्वाना औैनेन्द्र था अभीष्ट नहीं है। यानी बथावस्तु
की स्यूलता गौर ब्यापकता को वे बिल्कुल मावश्यक नहीं मानते 1
2 कथामे सत्य का ,वर्णन और उसका समम्पपण ही जैनेन्द्र के लिए.
॥ पर त 7
1 हिन्द उप यास बौर यथापंवाद . धूमिका, डा धीङृप्यमास, पृ० 6
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