सर्वोदय का सिध्दान्त | Sarrvodyaka Siddhant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आर्थिक समानता १२. इोनेवाला नहीं ह । वयोकि द्रव्य विक्रा कनलेकी पवित र्खनेवाे भेक आदमीकी धमितिकों समाज सो वटमा1 लिमचिञ बद्धिसिक मार्ग यह हुआ कि जितनी मान्य हो सके, अूतनी अपनी लावष्यकताओं पूरो करनेके वाद जोषमा वकी वच आुसका वह प्रजाको ओरसे ट्रस्टी वन जाय । अगर यह प्रामाणिकतास संरक्षक बनेगा, तो जो पैसा पैदा करणा अुसका सदूस्यय भी फरेगा। जब मनुष्य अपने आपको समाजवत सेवक मानेगा, समाजकी ग्यातिर धन फमायेंगा, समाजके कत्याणकें लिजे भूमे खर्च करेगा, तब असकी कमाओमें यूद्धता आयेंगी । जूसके साहसमें भी अहिंसा होगी । जिस प्रमगरकी कार्यप्रणाठीका लायोजन किया जाय, तो समाजमें वगर संधपके मूक क्रांति पैदा हो सकती हूं। किन्तु महा प्रयत्न करने पर भी धनिक संरक्षक न वने, ओन्‌ भूखों मरते हुअ करोड़ोंकों अहिसाके नामसे मौर अधिक कुचलते जायं, तव यथा कर्‌! जिस प्रश्नका अुत्तर दुढ़नेमें हो बहिसक कानून-भंग प्राप्त हुआ। कोओी धनवान गरीवोंके सहयोगके थिना घन नहीं कमा सकता । मसनुष्यकों अपनी हिंसक न्तिका नान है, सपोंकि बह तो जुम, लागों वर्षोसि विरासतमें मिली हुआ हैं । जब अुसे चार परकी जगह दो पर्‌ और दो दौयवादे प्राणका आकार मिन्दा, तवे जुसमें अहिसक दाफ्ति भी जाओ । दिसा-धक्तिका तो अुसे मूलसे ही नान था, मगर अर्डिसा-दावितिका भान भी धीरे-धीरे, सिन्तु अचूक रीतिसे रोज-टोज बढ़ने ठगा।. यह भान गरीवोंमें प्रसार पा जाय, तो वे बलवान चनें और आर्थिक बसमानताकों, जिसके कि वे दिकार बने हुआ हैं, अहिसिक तरीके दूर करना सीस लें। (हरिजनसेवक, २८४-८- ४०) मो० क० गांघी




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