सोम सरोवर | Som Sarovar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
318
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ध )
अव द्रोणानि धृतवन्ति सेह ।६.१०
घीसे मरे, काठके कलशो मे उतर ।
कलश, पवित्र, चसू ; अद्रि और द्रोण--इन उपकरणों
का सम्बन्ध स्पप्टतया किसी भोतिक द्रव से दही हो सकता
हे । परन्तु जव आध्यात्मिक अनुभूति का वणेन रस-रूप में
किया जायगातो उस के साथ, रसो से सम्बन्ध रखने
चाछे उपकरणों की ओर स्केत होना स्वाभाविक ही हे ।
हां ! वह संकेत होगा लाक्षणिक ही। जेसे “कड़ा” के साथ
“आविशन्” क्रिया का प्रयोग हज है, परन्तु आविष्ट कठ्टय
नहीं, हृदय होता है । इसी पवे मेँ अन्यत्र इसी क्रिया का
प्रयोग हृदय के साथ हआ भी हेः यथा :-
इन्द्रस्य हाचाविश्चन् ।६.६
इन्द्र के हृदय को आविष्ट करता हुआ |
इस प्रकार कद की पहेली तो वेद ने स्वयं बुझा दी
है। कलश हृदय ही है । भक्ति-रस का सवन हृदय के
सिवाय और कहां हो सकता हे! “करश्च खच्द् की
व्युत्पत्ति भी इस अथै की पोषक प्रतीत होती है । वाचस्पत्य
कोष सें इस शब्द का निवेचन इस प्रकार किया गया दै--
“कलं सधुशव्यक्तं ध्वनि . रवति अथात् जो मधुर
अव्यक्त शव्द करे वह॒ क्छ है । भक्त का हृदय सदा
मीटा-मीठा अव्यक्त-सा शब्द करता ही रहता दहै । उस में
अजपे जाप की क्रिया हर समय जारी रहती है।
अव “पवित्रः राब्द को ढीजिये । वेद् स्वयं कहता है -
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