एकमाताव्रत गाँधीवाद का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण | Ekmatavrat Gandhiwad Ka Manoviagyanik Vishleshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
188
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)से लाञ्छितं तथा कूढठा कहलाने की हृद तक; श्रवु कुमार के नाटक
का बुखार सिर पर बुरी तरह सवार हा जाता है । इतना ही नहीं, दृढ़
निश्चय के रूप में आप कहते हैं, “मैं इतना जानता था, बड़े बूढ़ों
की झाशा का पालन करना चाहिए | जैसा कहें, बैसा करना चाहिए |
बह जा कुछ करें, उसका काज़ी हमें नहीं बनना चाहिए |
काज़ी गांधी जी भले ही न बने हों, लेकिन आपने पिता की शीतल
छुत्रछाया से आपने के दूर करने का--पूर्ण प्रतिशोध के साथ--प्रयल्न
गांधीजी मे किया है--श्रात्मदृत्या करने के प्रयल की हृद तक | निष्क्रिय
विरोध की, पैर्सिव रेज़िस्टेन्स की, यह चरम सीमा है |
श्रात्महत्या उस समय गांधी जी नहीं कर सके | इसके बाद वह
पिता के 'वरणों के श्रौर भी निकट पहुँच गए. । पिता के पांव दाबना
उनकी श्रति प्रिय सेवा हे गई--जीवन में जैसे यहीं प्रधान है; श्रौर
सब कुछ गैण | बचपन की श्रनेक बेवकूफियों में से एक यह भी
थी--्रात्महत्या प्रसङ्ग का उल्लेख यहं प्रकट करने के लिए हमारे
सामने प्रस्तुत हुआ है । पर श्रभी श्रौर भी ।
गांधी जी अपने पिता के चरणों से ऊपर सिर न उठा सके । बहाँ
से खिसक कर उनकी नज़र टिकी अपने मंमले भाई पर--जा उनसे
बढ़ा था, डीलडौल में, ताकत में, हर चीज़ में । उसके बराबर पहुँचने
की कोशिश श्रापने की। जब यह भी पूरी न हुईं तो उसके दोस्त, सह-
पाठी, के बराबर में श्रागए । घरवालों ने इस गढबंधन का विरोध किया,
लेकिन गांधी जी उसके निकट पहुँचते ही गए । घरवालों ते श्राशङ्कर्पे
प्रकट कीं; श्रापने श्रपने के श्राशङ्कापूकफ घोषित किया । इस नये
मित्र के साथ गांधी जी काफी श्रागे बढ़े --जैसे कुसम स्वाकर, घरवालों
का एकं समक देने के जि | नतीजा इसका वांछुनीय हुशझा--ग्रलत
शा
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