एकमाताव्रत गाँधीवाद का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण | Ekmatavrat Gandhiwad Ka Manoviagyanik Vishleshan

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Ekmatavrat Gandhiwad Ka Manoviagyanik Vishleshan by नरोत्तम प्रसाद नागर - Narottam Prasad Nagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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से लाञ्छितं तथा कूढठा कहलाने की हृद तक; श्रवु कुमार के नाटक का बुखार सिर पर बुरी तरह सवार हा जाता है । इतना ही नहीं, दृढ़ निश्चय के रूप में आप कहते हैं, “मैं इतना जानता था, बड़े बूढ़ों की झाशा का पालन करना चाहिए | जैसा कहें, बैसा करना चाहिए | बह जा कुछ करें, उसका काज़ी हमें नहीं बनना चाहिए | काज़ी गांधी जी भले ही न बने हों, लेकिन आपने पिता की शीतल छुत्रछाया से आपने के दूर करने का--पूर्ण प्रतिशोध के साथ--प्रयल्न गांधीजी मे किया है--श्रात्मदृत्या करने के प्रयल की हृद तक | निष्क्रिय विरोध की, पैर्सिव रेज़िस्टेन्स की, यह चरम सीमा है | श्रात्महत्या उस समय गांधी जी नहीं कर सके | इसके बाद वह पिता के 'वरणों के श्रौर भी निकट पहुँच गए. । पिता के पांव दाबना उनकी श्रति प्रिय सेवा हे गई--जीवन में जैसे यहीं प्रधान है; श्रौर सब कुछ गैण | बचपन की श्रनेक बेवकूफियों में से एक यह भी थी--्रात्महत्या प्रसङ्ग का उल्लेख यहं प्रकट करने के लिए हमारे सामने प्रस्तुत हुआ है । पर श्रभी श्रौर भी । गांधी जी अपने पिता के चरणों से ऊपर सिर न उठा सके । बहाँ से खिसक कर उनकी नज़र टिकी अपने मंमले भाई पर--जा उनसे बढ़ा था, डीलडौल में, ताकत में, हर चीज़ में । उसके बराबर पहुँचने की कोशिश श्रापने की। जब यह भी पूरी न हुईं तो उसके दोस्त, सह- पाठी, के बराबर में श्रागए । घरवालों ने इस गढबंधन का विरोध किया, लेकिन गांधी जी उसके निकट पहुँचते ही गए । घरवालों ते श्राशङ्कर्पे प्रकट कीं; श्रापने श्रपने के श्राशङ्कापूकफ घोषित किया । इस नये मित्र के साथ गांधी जी काफी श्रागे बढ़े --जैसे कुसम स्वाकर, घरवालों का एकं समक देने के जि | नतीजा इसका वांछुनीय हुशझा--ग्रलत शा [ १७




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