रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला - अंक 11 | Raichandra Jain Shastramala - Vol- XI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ ( ह जावि विस्रेती पररिोशी मंडछीफो कणमातरमें परास फी अर्भात्‌ जीती पे भ्रीवर्धमानस्वामी मेरी दुद्धिको निर्मल फरें ॥| १॥ | समख मप्यलोकवघी जीवो पुण्यक समूद्रकी पररणासे भपार भतिमा ( नये नये नमतकारोफो उत्तभ्न करनेवाठी बुद्धि ) रूप प्राणो पारक सरखदी सौर बृषटस्पतिजी्रे अपने शरीरसे अभिन्नरूपमें धारण करते हुए जिन्होंने निज झरीररूप इष्टान्तसे | खाद्वादमसको सिद्ध किया सर्थत्‌ चैते मेरा एरीर परस्पर भित्र पेसे सरखती और शदस्पतिको पक रूपतासे घारण फरता दै, | उसी प्रकार समस पदार्थ परस्पर मिस्र अनेक धर्मोफे धारक हैं, ऐसे अपने झरीरसे यूचित किया, वे श्रीदेमचन्द्रखामी मेरे || £ रु सम्यगूकानरूपी समुद्री बृद्धिके अर्म होगें ॥ २ ॥ सो मनुष्य श्रीदेमचन्द मुनीन्द्रको इनके ८ श्रीहेमसन्द्जीफे ) द्वारा फटे हप शास्रोंफे अमैकी सेवाके यहानेसे सेवन करते हैं, ये ) त ज अगर नर्म कलाओं गौरवफो ( वदप्यनकरो ) मात हो करके योग्य पयो परा देते है । मावाथे--जो भीदिमचन््रजी चरी- ` श्वरफी सेवा तते है, वे महामुद्धिमान्‌ होकर सुगति पा होते ह ॥ ३ ॥ हे सरखती माताजी { आप भेरे वमे पिराजमान भिये, भिससे सर्वज्ञकी स्तुतिपर विवृति ८ व्याख्या ) रचनेफे मैः जो ॥ मरम करनी सेमावना द, वहं ध्रीप्र दी सिद्ध दोषै अर्थात्‌ शीप् टी सद्वादमंअरीको रचनेफा परेम एर वृं । अमवा नष्टौ नदी ॥ अनिभन सारखतमप्र तो एर दी रहा है । साषाथ-गुस्फे सरणे प्रभावसे आप ख्य मेरे द्धदयमे विराजमान हो जंयगे । भत 1 सापे मर्था कृटनेषएी फो भावद्यकता नदी दै ॥ ४ ॥ ४ ॥ फिपि५ (अवतरणिका ) मैं भूल गया क्योंकि, मेरे दोठोंके मध्यम रात्रिदिन “ भ्रीउद्यप्रम ” इन अक्षरोंकी रचनासे मनोहर शुरुका नामरूपी जनावि | शद ि विपमदुःपमाररजनिविरस्कारमास्कराजुकारिणा वस्ुधातजषवीर्णसुधासारिणीदेश्य्देशनाविवानपर- | मादवीकृतश्रीुमारपाउक्ष्मापाठम्रयर्चतिवाभयदानामिषानजीवापुखजीषित्तनानाजीषम्रद साशीवा व माष्ठारम्यकस्पाऽ- |¢ यपिस्यापिषिशद्यशःश्रीरेण निरयदयचासुर्षिधेनिमणिकमरक्मणा स्रीदेमचन््रसूरिणा जगपसिद्धश्रीसिद्धसेनदिवा- ||१ 1 ८9) वप 'स्विरीहत' इवि पाटः । २ कष्षप्यागमसघादि्वदकाजातूरविपस्‌ ।




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