श्रीमद राजचंद्र भाग २ | Shri Mad Rajchandar (vol-ii)
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30 MB
कुल पष्ठ :
576
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अक विषय पृष्ठ
६०५ आत्मपरिणामकी विभावता ही. मुख्य
मरण ५३८
६०६ ज्ञानका फल विरति, पूर्वकर्मकी सिद्धि ५३८
६०७ जंगमकी युक्तया ५३८
६०८ सात भर्तारवाली ५३९
६०९ आत्मामं निरंतर परिणमन करने योग्य
वचन -- सहजस्वरूपसे स्थिति, सत्संग
निर्वाणका मुख्य हेतु, असंगता, सत्संग
निष्फल वंयों या किससे, सत्संगकी पह-
चान, आत्मकल्याणार्थं ही प्रवृत्ति ५३२
६१० मिथ्या प्रवृत्ति ओर सत्य ज्ञान ५४०
६११ आमका विपरिणाम काठ ५४१
६१२ अहोरात्र विचारददा ५४१
६१३ अनंतानुवंधी ओर उसके स्थानक, मुमुक्षु
पुरुषका भूमिकाधरमं
६१४ त्यागका क्रम
६१५ केवलज्ञान आदि संबंधी बोलोंके प्रति
विचारपरिणति कर्तव्य
६१६ अपने दोप कम किये विना सत्पुरुषके
मार्गका फल पाना कठिन है ।
६१७ केवलज्ञान विक्ेप विचारणीय, स्वरूप
पराप्तिका हतु विचारणीय, दर्शनोका तुल-
नात्मक वरिचार, अल्पकालमें सर्वं प्रकार-
का स्वगि समाधान
५.४२
पटर
५.४३
५४२
५.४
६१८ उदयप्रतिवंध आत्महितार्थं दुर करनेका
क्या उपाय ?
६१९ सर्व प्रतिवंधमुक्तिके विना सर्व दुःख-
मुक्ति असंभव, अल्पकालकी अल्प भसं-
गताका विचार
५४५
५.४५
६२० महावीरस्वामीका मौनप्रवर्तन उपदेश-
मार्गप्रवर्तकको शिक्षाबोधक, उपयोगकीं
जागृतिपूर्वक प्रारव्धका वेदन, सहज
प्रवृत्ति और उदीरण प्रवृत्ति
६२१ अधिक समागम नहीं कर सकने योग्य
दशा, अविरतिरूप उदय विराधनाका हेतु ५४७
५४६
अंक त्रिषय पृष्ठं
६२२ अनंतानुबंधी का विक्ञेपार्थ, उपयोगकी
शुद्धतासे स्वप्नदशाकी परिक्षीणता ५४८
६२३ मुमृक्षुकी आसातनाका डर ५४८
६२४ अमुक प्रतिबंध करनेकी अयोग्यता ५४९
६२५ पर्याय पदार्थका विशेप स्वरूप, मनः
पर्ययज्ञानको ज्ञानोपयोगमे गिना ह,
दर्दानोपयोगमें नहीं ५४९
६२६ निमित्तवासी यह् जीव हैँ । ५४९
६२७ भत्मार्थके लिए विचारमागं भौर भक्ति-
मागं आराधनीय
६२८ गुणसमुदाय ओर गुणीकाः स्वरूप
६२९ गुण-गुणीके स्वरूपका विचार, इस कालम
केवलज्नानका विचार, जातिस्मरणज्ञान,
जीव प्रति समय मरता हं, केवलन्ञान-
दर्शनमें भूत-भविष्य पदार्थका दर्शन
६३० क्षयोपशमजन्य इन्द्रियलब्धि, जीवके
ज्ञानदर्शन ( प्रदेशकी निरावरणता ) क्षा-
यिक भाव और क्षयोपदाम भावके अधीन,
वेंदनाके वेदनमें उपयोग रुकता हैं ।
६३१ एक आत्म।को जानते हुए समस्त लोका-
लोकका ज्ञान, भौर सब जाननेका फल
आत्मप्राप्ति, आत्मज्ञानकी पात्रताके लिए
यमनियमादि, तत्त्वका तत्त्व
६३२ युवावस्थामें इन्द्रिय-विकारके कारण
६३३ आत्मसाधनके लिए कर्तव्यका विचार
६३४ संवत्सरी क्षमापना
६३५ निवृत्तिक्षेत्रमें स्थितिकी वृत्ति
६३६ निमित्ताधीन जीव निमित्तवासी जीवोंका
संग छोड सत्संग करे
६३७ सर्वदुःख मिटानेका उपाय
६३८ धर्म, अधर्मकी निष्क्रिता और सक्रियता,
जीव, परमाणुकी सक्रियता
६३९ आत्मार्थके लिए चाहें जहाँ श्रवणादिका
प्रसंग करना योग्य
६४० आत्माकी असंगता मोक्ष है, तदर्थ सत्संग
कर्तव्य
५४९
५५०
५५०
५५२
५५३
५५४
५
५५४
धप
५.५५
५५५
५५४
+ ५५
५५्
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