मौसेरे भाई | Mousere Bhai

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Mousere Bhai by श्रीयुत कन्तानाथ पाण्डेय - Shriyut Kantanath Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १९] समय आकर यह प्रश्न करना था ! आदमी को चाहिए कि जब'' किसोको की जाता देखे तो व्यथं भ उससे खोद-विनोद नं करे ”” यह कहकर मन-ही-मन बढ़बड़ाते हुए निकसे कि कहाँ के साइत से निकले, कि एक तो काना ऊपर से तेली '्मादमी घर से बाहर पैर निकालते दी दृष्टिगोचर हा, वे आराग वद्‌ । मुशीजी, बात यह थी कि ससुराल जा रहे श्रे ! अपने साले की लड़की के विवाद में भाग लेने के लिए। लकी के विवाह के साथ ही बड़के का जनेउऊ सी था । सुंशीजी की घरवाली एक सप्ताह पूवे हो अपने मेंके पहुँच चुको थीं । मुंशीजी कुछ लेन- देन, हिसाब-किताब के कारण उस समय न जा सके थे । यद्यपि अभी विवाह में तीन-चार दिन को देर थी फिर भी मुंशीजी के ससुराल का मामला होने के नाते शोघ्रता करनी पड़ी । विचार तो श्राज सन्ध्या को ठण्डे-ठण्डे प्रस्थान करने को था पर उस समय भद्रा थी, इसलिए दिन में तड़के ही निकल पडे। १५ कोस जमीन ते करनी थी । गर्मी के दिन थे । कुछ खिलवाड़ थोड़े हीथा! भद्रा के सय से दोपहर की धूप सह लेने को तैयार हुए ! पर काने साव तेली के दशन से उन्हें यह तो निश्चय हो ही गया कि बिदाई में एक जोड़ी बेल मिलना असस्भव नहीं तो कटिन अवश्य ही है । | लगभग २,२॥ मील तक चले जाने के बाद मुंशीजी को यदह स्परण हुआ कि वे टीका में देने के लिए अपने जेब में रुपयों का बदुवा ( थैली ) रखना भूल गये। उसे वे रसोईघर के डॉड पर ही छोड़ आये है । यदि किसी ने देख लिया होगा तब तो वह्‌ क्यों मिलते लगा । १४५) रु० तो गये हो समसको ! देखा न ! काने साव-तेली के द्वार पर उन्हें जो आशंका हुई थी, वह इस' प्रकार :सत्य प्रमाणित हुई ! मुंशीजी को , पुनः घर लौटना पड़ा | ,विना टीके का रुपया




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