रुकिमणी विवाह | Jawahar Kiranavali [ Vol. Vi ] Rukimani- Vivah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ कथारभ्मं प्रसद्य मणि जुद्धरेनभकरवकन्रदंष्राड्करात्‌ समुद्रमपि संतरेतप्रचल दूर्मिमा लाकुलम्‌ । सुजंगमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धार पे नतु प्रतिनिविष्टसूखेजनचित माराधयेत ॥ अथौत्‌--यदि मनुष्य चाहे, तो मगर की दोदों से मणि निकाढने का उदयोग भले करे, उथठ पुथल दोते हुए समुद्र को, तैर कर पार होने की चेष्टा भठे करे, क्रोध से मरे हुए साप को, पुष्पद्दार की तरह सिर पर धारण करने का साइस भले करे परन्तु ठ प्र चटे हुए मूर मचुष्य के चित्त को, भसत्‌-मा्मं घे क्षतै-मागं पर छाने की दिम्मठ कदापि न करे 1 इसके अनुसार, इसे समझाने की चेष्ठा निरर्थक दो दोगी फिर भी, असफलता के भय से प्रयन्नद्दीन बन बैठना, अनुचित है । पेखा करना तो, नीचो का कम है| उत्तम पुरुष का कतेव्य, कायै फरते जाना है, किर षठ ष्ोया नो । कायै करना सपने अधिकार की घात है, फठ अपने धिकार में नही है । भीम बोले--बेटा रुकम, तुम्दे किसी ने कृष्ण की ऐसी दो धाहिं सुनाई हैं, जिनमें कृष्ण की निन्दा दी निन्‍्दा है । कृष्ण कौ रुन बातो से तुम सर्वेथा भपरिचित जान पढ़ते हो, जिनके कारण कृष्ण की प्रशसा दो रही दै। ससार के भ्रत्येफ मनुष्य में, सबू- शुण और हुशुंश दोनो दी रदते हैं । ऐसा कोई ही मनुष्य होगा




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