सिद्धान्त और अध्ययन | Siddhant Aur Adhyyan

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Siddhant Aur Adhyyan by गुलाबराय - Gulabray

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावनां € गुणों को काव्य की शोभा के उत्पन्न करनेवाले प्रौर प्रलंकासोंको शोभा बढ़ानेवाले धर्म कहा है-- 'काव्यशोभाया: कर्त्तारो घर्मा गुणा: !' 'तदतिशयहेतवस्त्वलड्टारा: ।' --कान्यालङ्कारसुत्र (३।१।१, २) ग्रान्तरिकता को महत्ता देने के सन्बन्धमे भी वामनको दूसरा श्रेय इस बात का हैं कि उसने काव्य की. परिभाषा में श्रात्मा को मुख्यता दी है--रोतिरात्सा कॉव्यस्य' (काव्यालड्रारसुत्र, १1२1६) । उसी के बाद ध्वनिकार श्ौर प्राचार्य विश्वनाथ ने क्रमश: ध्वनि ('काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति” ध्वस्थालोक, १1१) श्रौर रस को काव्य की श्रात्मा कहा किन्तु वामन ने भी रस को मृख्यता न दी वरन्‌ उसको कान्ति गुण के ही भ्रन्तगंत रखा--'दीप्तिरसत्वं कान्तिः (काव्यालङ्धुारस्‌च्, ३।२।१५) । वामन दारा प्रलद्धुारो को पिच्छंडादेने पर भी अ्रलंकार-सम्प्रदाय स्वतन्त्र रूप से चलता रहा । यद्यपि शब्द श्रौर भ्रथे दोनों ही काव्य के दारीर माने गए हैं तथापि उनमें दब्द कौ श्रपेक्षा प्रथं की प्रधानता रही! अ्लद्कारोंमे भी शब्दालंकारों को विश्लेष महत्व नहीं मिला । उपमा, इलेष, वक्रोक्ति श्रादि भ्र्थालंकार ध्वनि-सम्प्रदाय ही श्रलकारो के मूल मेंमनेगए । श्रथ के विवेचन में निरुक्त, न्याय, मीमांसा, व्याकरण श्रादि ने भी योग' दिया । दान्दशवितयः का भौ ञ्नध्ययन दभ्रा, उनमें व्यञ्जना को प्रधानता मिली । ्रानन्दवर्धन (नवीं शताब्दी के मध्यमे) के समय तक मुक्तक काभ्यों (जैसे श्रमरुकरातक, 'ग्रार्यासप्तशती' श्रादि) का चलन बढ़ चली था । प्रबन्धकाव्य मेँ जितना प्रच्छा रस. का परिपाक हो सकता हैं उतना मुक्तक काव्यों में नहीं । मुक्तक काव्यों में ग्यञ्जनाः की प्रधानता के साथ शभ्रपनी एक विशेष श्री होती है--श्रमरुक कवेरेकः इलोकः प्रनन्ध- ` दातायते' श्र्थात्‌ प्रमरुक का एक-एक दलोक सौ-सौ प्रबन्ध-काव्यों के बराबर माना गया है--(श्रानन्दवधन ने भी 'प्रमरुक' का उल्लेख किया है) । ऐसी काव्यरचनाओं के साथ ध्वनि का भी विवेचन श्रावश्यक था । ध्वनिकार या भ्रानन्दवधेन ( कुछ लोग इनको दो व्यविंत मानते हैं श्रौर कुछ लोग एक ही) इसके प्रवर्तक नहीं हैं. । इनसे पहले भी ध्वनि के माननेवाले भ्रौर विरोधी थे । कुछ लोग इसका अभाव मानते हैं, कुछ लोग इनको लक्षण (शक्ति) के श्रस्तगंत मानते थे--'किचिदू वाचां स्थितमविषये' (ध्वन्यालोक, १।१) । श्रानन्दव्धेन ने इन तीनों मतों* का खण्डन कर ध्वनि की १. थे तीनों मत नीचे के इलोक में उल्लिखित हैं-- ककराग्यस्यात्मा ध्वनिरिति वुधैः समास्नातपर्वं- स्तस्याभावं जगदुरपरे भाक्तमाहुस्तमन्ये ॥'




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