अपराध और दंड | Aparadh Aur Dand

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Aparadh Aur Dand by कविराज विद्याधर विद्यालंकार - Kaviraj Vidyadhar Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वाला कौन है दुसरे वहाँ आने में उसका एक सक्लब भी था + च्छा रूबल निकाली यह युवा ने भर्राई हुई श्रावाज़ में कहा । बुढ़िया ने झपनी जेब सें चाबियाँ फिर पास के कमरे में घुस गईं । युवा वहाँ अकेला रह गया । उसके थपने कान खड़े किए झ्ौर ध्यान से सोचने लगा । उसने साहूकारिन को झालसारी का ख़ाना खोलते हुए सुना । उसने सोचा यद्द सबसे ऊपर वाला ख़ाना है । अब सुकको सालूम हो गया कि चह चाबियाँ दाहनी जेब में रखती है। चाबियाँ एक लोहे के छुत्ले में हैं श्र एक चाबी उन सबसे तिंगनी बड़ी है । यह चाबी ख़ाने की नहीं हो सकती । जान पड़ता है इसके पास कोई बडा मज़बूत सदूक या लोहे की झालमारी और है । मज़बूत संदूक की चाबियाँ ऐसी ही होती हैं । मगर ये केसे गंदे विचार मेरे मन सें श्रा रहे हैं बुढ़िया बाहर निकलीं झौर उसने कहा-- देखो बच्च मे दुस कूपक सिका एक रूबल सिक्का पर ब्याज लेती हूँ। डेढ़ रूबल के पंद्रह कुपक हो गए । झोर दो रूबल जो मैंने पहले उधार दिए हैं उनका सहीने-भर का ब्याज बीस कूपक हुआ । लो सब ब्याज काटकर यह एक रूबल और पंद्रह कृपक व क्या एक रूबल श्रीर पंद्रह कूपक ही मुक्ते इस समय दोगी ? ? बस इतना दी तो तुम्हें चाहिये । युवा ने रुपए उठा लिये थ्रीर बुढ़िया की झोर देखने लगा । वह कुछ कहना या करना चाहता था परंतु उसकी समभक में नहीं श्राया कि क्या कहे । झंत में बढ़ी घबराहट से उसने ये वाक्य मुँह से निकाले-- छे एलेन में एक सदर सिंगार-केस तुस्दारे पास गिरवी रखने को शौघ् लाऊ गा - अच्छा बच्च उसकी बातचीत फिर करेंगे । सलाम 1 क्या तुम सदा थकेली रददती हो था तुम्दारी बददन भी चुम्दारे साथ रहती दे ? --उसने बाहर जाते-जाते कहा ।




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