करमग्रंथ १ | Karamgranth 1
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
216
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं सुखलाल जी कृत - Pt Sukhlal Ji Krat
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नाना
प्राणियोंकों कर्स-फल सोगवाता है । ३--इश्वर एक ऐसा
व्यक्ति होना चाहिये कि जो सदासे मुक्त हो, और मुक्त जीवों
की अपेक्षा भी जिसमें कुछ चिशेषठा हो । इसलिये कर्मचादका
यह मानना ठीक नहीं कि कर्मसे छूट जनेपर सभी जीव
मुक्त अर्थात् इश्वर हो जाते हैं ।
पहिले आक्षेपा ` समाधान ~ यदह जगतू किसी समय
नया नहीं वनाः वह सदासे ही है। हौ, इसमे परिवतैन हृश्रा
करते ह । अनेक परिवतैन पसे होते है फि भिनफ होनेमें
मनुष्य आदि. प्राणीवर्गके प्रयत्लकी अपेक्षा देखी जाती है;
तथा ऐमें परिवर्तन भी होते हैं कि जिनसें किसीके प्रयत्तकी,
अत्ता नदीं रहती । वे जड़ तत्त्योंके तरह तरदके संयोगों
से-उष्णता, वेग, क्रिया आदि शक्तियों वनते रहते है । उदा-
हरशार्थ, मिट्टी पत्थर आदि चीजोंके. इकट्रा होनेसे छोटे-सोटे
टीले या पहाडकां वन जाना; इबर-उधघरसे पानीका प्रचाह
सिल जानेसे उनका नदी रूपमे बहना; सापका पानी रूपं
वरसना और फि.से पानीका भाप रूप बन जाना इत्यादि \
इसलिये इश्वर्को सुष्टिका कर्ता साननेकी कोई जरूरत
नहीं है ।
दूसरे आशषेपह्ा समाधान->माणी जैसा कमें करते हैं
वैसा फल उनको कर्मके द्वारा दी मिलन जाता है। कस जड़ हैं
चौर प्राणी अपने किये घुरे कर्मका फल नहीं चाहते, यह ठीक
है, पर यद् ध्यानसे रखना चाहिये कि जीव-चेतन के संगसे
करमसें ऐसी शक्ति पैदा हो जातो है कि जिससे चह अपने
श्नच्छे-युरे विपाको नियत्त समयपर जीवपर प्रकट करता
है। कर्मवाद यह नहीं मानता कि. चेतनके सम्बन्धके चिना
ही जड़ कर्म भोग देनेमें समर्थ है। वद्द इतना दी कहता हूँ
User Reviews
No Reviews | Add Yours...