जैनेन्द्र के विचार | Jainendra Ke Vichar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्०५ मनोविज्ञानिकके लिए जे बति पेटी वन प्रस्तुत दती ई, उन जनेन जैसे कलाकार किस सदजताके साथ सुलझा डालते हैं, इसके प्रमाण-रूप कई लेख इस संग्रदमें हैं । एक लेखनुसा कहानी, * कहानी नहीं, * दी ले लें । स्वयं कथने ( =ो010101९ >) स्प अमीरफे मनका चोर किस मचेसे पकदा गया रै ! जनेन जर्दौ आलोचक दोकर प्रस्त देते ह, वदो भी ध्यान देनेकी ब्रात यह्‌ रै फि वे अपनेभैके कठाकारको नी खेति। प्रेमचन्दजीक्री का, ‹ रामकथा, अथवा नेदरूजीके आत्मचरितपर लिखें गये लेख इसी कलात्क आलोचना श्रीकर मनोदर प्रमाण ह! वस्ततः आटे(चनाका आदय भी वदी दै जहाँ आलोचक मनके रसको नहीं खो देता, जहौ वद्‌ एक-मात्र चुद्धिवादी बनकर विदलेपणकों ही प्रधान ओर अन्तिम कर्तव्य नदी मान व्रैठता । आलोचनामं भी क्यो न आत्म-रस-दान ही प्रधान सो १? इसी विचारकों जेनन्द्रम अपनी प्रमुख दृष्टि मानकर सदा सामने रक्‍्खा है । ( ४९-६४ ) ऊपर ज कटा गया दै कि जैनिन्द्र निरी घुद्धिस अधिक सर्वस्पशी-भाव-भूमिको अपनाति ह, उसका अयं विवेकरासित भावनार्ओके अयम देना अधिक युक्त होगा { क्योकि वेधी निरी भावनाके शिकार चननेमे वे सुख ना टत, वद्‌ ता पुनः एक अन्धसियिति र ] परन्तु प्रेमकी मावनाको या कटो सशरव्यापी सहानुभूतिको ई जनिन््रेन जेते अपने भीतर स्मा ल्या दै । इसीसे वे उस उन्नत शालीनताक्रे साथ अदलीर्ताके भौतिकं प्ररनक्रो दूते दीखते ई ( प० ४२) कि जिससे दुः्रित्रा ठदराई हुई और यहूदियोंद्विरा पत्थर फेंककर सताई गई स्त्रीपर इंसाके करुणा-द्रवित हनिकी, मदरातमें वेदयाओंके सम्मुख गेधिसीद्रास दिये गंग्र करुणा-रोजित ममतापूर्ण भाषणकी, अथवा बुद्ध ओर सुजाताकी कर्ये आखोंके सामने आ खद़ी होती हैं । सच्चा कलाझार इसी अस्तिम सत्यकी अलौकिक थूमिपर खड़े दोकर, लौकिक सुन्दर-अ पुन्दरके भद-अन्तरके। ओंखोके सामने विलमते-छुझते देखता हे | अरे, सत्यकी मद्दादशिनी और्खेक आगे ये मेद-माव कँ बचे रदते हैं ! दुबंढ मानव-मन-निर्मित मूस्य-भेद जहाँ जाकर, एकमेक हो जाते हैं उसीको आध्यात्मिक या आधिदेविक दृष्टिकोण कहते हैं । आधिमोतिक आचार या नीति-अनीतिके रूढ बंघनोंकी कीमत कूतनेवालि आास्त्र (एथिवस ) की समस्यार्ये भी इसी तरद जैनेन्द्रके लिए बहुत कम कठिन रट जाती हैं । जैनिन्द्र क्या, प्रत्येक सुबुद्ध ढेखक अपनी काल-परिश्थितिकी




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