साहित्य तरंगिनी | Sahitya Tarangni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय 3 अदियुग : वीरगाथा काल अप्र श कान्य हिन्दी का विकास क्रमशः प्राकृत प्मोर भपश्नश के श्रनंतर हुआ है । जिस प्रकार प्राकृत के युग में गाथा कहने से प्राकृत का बोव होता था, उक्ती प्रकार शरपश्चशके युग में दूहा या दोदा कहने से चपश्रशका भान होता था । जिस प्रकार जनसाधारण की बोलचाल में प्राकृत के प्रवर्तित हो चुकने पर भी संस्कृत पे, आर श्रपन्नेश के चल पढ़ने पर प्राकृत में कामभ्य-रचना होती र्ठी, उशी प्रकार बोलचाल मे हिन्दी के प्रवर्तित होने के उपरान्त भी बहुत दिनो क कवि लोग श्रपश्र श में काभ्यरचना करते रहे । किन्तु साहित्य के छेंत्र में भी हिन्दी का विकास बारहवीं सदी के अंतिम अध में होने वाले कवि चन्दवरदाई के समय से स्पष्ट हो जाता है । कवि चन्द के काव्य की हेमचन्द्र (११४५-१२२४) की अपर श रचनाओं के साथ तुलना करने पर ज्ञात होता है कि हेमचन्द्र की रचना प्राचीन है शरोर चन्द की श्र्वाचीन । ग्यारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में वर्तमान वाङ्पतिशज परमार मुज़ की रचना हिन्दी से बहुत कुछ मिलती है । इन की रचना साहित्यिक है, इसलिये उसमें कुछ ऐसे प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी है, जो उस समय जनसाधारण में प्रचलित नहीं थे । यदि मुंज की कृति में से इस श्रेणी के शब्द निकाल दिये जायें तो उनकी भाषा हिन्दी से मिल जाती है । इस दशा मे यह कहा जा सकता है कि हेमचन्द्र के समय से एवं हिन्दी का साहित्यिक वि आरम्भ हो गया धा श्रौर चंद के समय तक




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