दुनिया की सैर | Duniya Ki Sair

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Duniya Ki Sair by योगेन्द्रनाथ सिंह - Yogendranath Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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= सागर प्रवास ६ के साथ अन्याय हुभा ह, यदी सय फा कहना दे । मंत्रियों मैं नरीमान का न दोना, सटरूना तो जरूर है। बम्ब के टिष राष्ट्रीय क्षेत में जितना नरीमान का नाम है, उतना और का नहीं । परन्तु सरदार पटेल और जमनाछाल बजाज के मन की गति-विधि षो पहचानना साधारण मानस-लास्री फा काम नी है । ये गांधी-युग के रहस्य हैं हो, यददाँ आकर फिर यही पासपोर्ट का प्रश्न उपस्थिचर हुआ 1 घर से हो चल दी पड़ा था, पर पासपोर्ट अभी तक हाथ नहीं आया, इसका पछतारा दृता जा रहा था । अब्र राण्य के पोटिः टिक मेषर को तार दिया--“मैं ३१ जुलाई को जाना चाहता हूँं। पासपोर्ट भेजिए । समय पर अगर आप भेज मे सकें तो वम्वई-पुछिसि-कमिश्रर को सूचित करिये कि मुझे पासपोर्ट देने में आपको कोई आपत्ति नहीं है ।” मुझे मेबर साहब का अलुप्रद मानना चाहिए कि उन्होंने तुरंत उत्तर दिया, ओर पुटिस कमिश्रर-वम्बई फो भी । मेँ गव- मेंण्ट-सेक्रेररियट मे गया । फां छेकर पुटि कमिसर के आफिस में पहुँचा । एक अंग्रेज मददाशाय वैठे हए थे । मालूम हुआ कि वे डिपुटो-सुपरिंटेंडेंट पुलिस थे । मैंने जाते ही अपना तार दिखाया, तुरत॒उन्दोंने टेबढठ पर रखा हुआ एक “तार” दिखलाया कि “हमारे पास भी आ गया है ।” तय तो जान-से- जान आई । उन्होंने अपने सामने मेरे हस्ताक्षर स्यि, ओर तुरंत कमिश्नर साहब के दफ्तर मे जा दस्तपत ठे आये ! इस काम में सुदिकिठ से ५-७ मिनट छगे होंगे । अब हमने फिर 'कार' ठी, और सेक्रेटरियट से पहुँचे । दफ्तर बन्द हो गया था, अत. घर आए । दूसरे रोज सुबह फिर ११॥ चजे पहुँचे । ५ मिनट में उन्होंने फार्म ठेकर कड आने को कहा । आज हमारा काम ठगभग हो गया था । अभी तर्क जो चिता थी, वह्‌ नरीं-सी रह्‌ गई थी ! अप दूसरा काम था, थामस छः से । आगे बहे । ३१ जुलाई को जानेवाठे जद्दाल की सीट का तय करना था । कम्पनी




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