धर्मामृत | 1881 Dharmamrta (anagara)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भरचाच 3 क्तमकथनेन यतः प्रोत्सहूमातोऽततिदूरमपि शिष्य: । अपदेऽपि संप्रतृप्त: प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिम ॥॥१९॥ जो अल्पमति उपदेशक मुनिधर्मको न कहकर धावकधर्मका उपदेश देता है उसको निनागम्े दण्डका पात्र कहा है । क्योंकि उस दुर्वेद्धिक मका भंग करके उपदेश देनेसे अत्यन्त दूर तक उत्साहित हुआ भी शिष्य श्रोता तुच्छ स्थानम हौ सन्तुष्ट होकर ठगाया जाता है । अतः बक्ताकों प्रथम मुनिषर्मका उपदेश करना चाहिये, ऐसा पुराना विधान था ! इरे अन्वेषक विद्वानोके इस कथनमें कि जैन घमं ओर वौदधर्मं मृकतः साधुमागी परमं थे यथार्थता प्रतीत होती है । लोकमान्य तिछकने अपने गीता रहस्यमें लिखा हैं कि वेदसहिंता और ब्राह्मणोंमें संन्यास आधम मावष्यक नहीं कहा गया । उछटा जैमिनिने वेदोका यही स्पष्ट मत बतलाया है कि गृहस्थाश्रममें रदनेते हो मोक्ष मिलता है। उन्होने यह भी छिखा है कि जैन और बौद्धघर्मके श्रवरतकोने इस मतका विशेष प्रचार किया कि संसारका त्याग किये बिंचा मोक्ष नही मिलता । यद्यपि शंकरावार्यने जन भौर घौद्धोका ख़ण्डन किया तथापि जन और वौद्धोने जिस संन्यासपर्मका विशेष प्रचार किया था, उसे हो श्रौतस्मार्त संन्यास कहकर कायम रखा । कुछ विदेशी विद्वानोका जिनमें हा० जेकोवी' का नाम उल्ठेखनोय है. यह मत है कि लैन भोर बौद श्रमणोके नियम श्राह्मणघर्मके चतुर्थ आधमके नियमोकी ही शनुकृति है । किन्तु एतहेशीय विद्वानोका ऐसा मठ नही है क्योंकि प्राचीन उपनिषदोंमे दो या तीन हौ ध्रभोका निर्देश मिछता है। छान्दोग्य उपनिपद्के अनुसार गृददत्याधमंते ही मुक्ति प्राप्त हो उकती हू । शतपथ ब्राह्मणों गृहस्पाधमकी प्रदंसा है और तैतिरीयोपनिपदु्ें भी सम्तात उत्पन्न करनेपर ही जोर दिया है। गौतम घर्मे- सूच ( ८1८ ) में एक प्राचीन बाचार्यका मत दिया है कि वेदोको तो एक गृहस्याघ्म ही मान्य है । वेदे उसीका विधान है अन्य लाधमोका नही । वाल्मीकि रामायणमें संन्यासीके दर्शन नही होते । वानप्रस् ही दृष्टिगोचर होते है। महामारतमें जब युघिष्टिर महायुद्कक पश्चात्‌ संन्यास छेना चाहते है तब भीम कहता है-- शास्तरमें लिखा है कि जब मनुष्य संकटमें हो, या वृद्ध हो गया हो, या शत्रुओोसे श्रस्त हो तव उते संन्यास छेना चाहिए । भाग्यह्वीन नास्तिकोने ही संन्यास घलाया है। बत्त; विद्वानोका मत है कि वानप्रस्थ और पन्यासो वैदिक आयनि थवैदिक संस्कृतिसे लिया है ( हिष्दूनमं समीक्षा प्‌. १२७) मस्तु । जहाँ तक जैन साहित्यके पर्यालोचनका प्रद्न है उससे तो यही प्रतीत होता हैं कि प्राचीन समयमे एक मात्र अनगार या मुनिधर्मका ही प्राघान्य था, श्रावक धर्म आनुष॑गिक था । जद मुनिषर्मको धारण करने- की हर अमिरुचि कम हुई तब श्रावक धर्मका विस्तार अवदंप हुआ किन्तु मुनि धर्मका महत्त्व कभी भी कम नही हुआ, क्योक्ति परमपुरुषार्थ मोक्षकी प्राप्ति मुविघर्मके बिना नहीं हो सकती । यह सिद्धान्त जैन घर्मे माज तक भी अक्ष्ण है । ५. धामिक साहित्यका अनुशीरन हमने ऊपर थो तथ्य प्रकाशित किया है उपलब्ध जैन साहित्यके अनुशीछनते भी उसीका समर्थन होता हूँ । सबसे प्रथम हम आवायं कुल्दकुन्दकों ठेते है । उतके प्रववनसार गौर नियमसारमें जो आचार विषयक चर्चा है वह खव केवल अनगार घर्म्ते ही सम्बद्ध है । प्रचचनसारका तीसरा अस्तिम अधिकार आन नि मिस ठे, इ, ६, बिल्द २२ कौ भस्तावना ए, १२।




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